: १२ : आत्मधर्म : र१३
पंचाध्यायीमां आ ज विषयने बीजी रीते आ शब्दोमां कहेल छे.
पर्यायार्थिक नय इति यदि वा व्यवहार एव नामेति ।
एकार्थो यस्मादिह सर्वोऽप्युपचार मात्रः स्यात् ।। १–५२१।।
व्यवहरणं व्यवहारः स्यादिति शब्दार्थतो न परमार्थः ।
स यथा गुणगुणिनोरिह सदभेदे भेदक्रणं स्यात् ।। १–५२२।।
साधारण गुण इति यदि वाऽसाधारणः सतस्तस्य ।
भवति विवक्ष्यो हि यदा व्यवहारनयस्तदा श्रेयात् ।। १–५२३।।
अर्थ : पर्यायार्थिक ए संज्ञा अथवा व्यवहारनय ए संज्ञा एक ज अर्थनी वाचक छे, केम के एमां
समस्त व्यवहार उपचार मात्र छे. १–पर१. विधिपूर्वक भेद करवो तेने व्यवहार कहे छे ए एनो निरूक्ति अर्थ
छे. ए परमार्थरूप नथी. जेम के गुण अने गुणीमां सत्तारूपे भेद न होवा छतां पण भेद करवो ते व्यवहारनय
छे. १–परर. जे वखते सत्नी साथे साधारण अथवा असाधारण गुणोमांथी कोई एक गुण विवक्षित थाय छे
ते वखते व्यवहारनयने योग्य मानवामां आव्यो छे. १–पर३. नयचक्रमां एनुं लक्षण आ शब्दोमां जणाव्युं छे.
जो चिय जीवसहावो णिच्छयदो होइ सव्वजीवाणं ।
सो चिय भेदुवयारा जाण फुडं होइ ववहारो ।। २३६।।
अर्थ :– निश्चयनयथी सर्व जीवोनो जे स्वभाव छे ते ज्यारे भेदवडे उपचरित करवामां आवे छे त्यारे
तेनो ज विषय करे छे तेने व्यवहारनय जाणो. २३६
८९. आज सत्य नयचक्रमां बीजा शब्दोमां आ रीते व्यक्त कर्युं छे :–
जो सियभेदुवयारं धम्माणं कुणइ एगवत्थुुस्स ।
सो ववहारो भणियो विवरीयो णिच्छयो होदि ।। २६२।।
अर्थ :– जे एक वस्तुमां धर्मोना कथंचित् भेदोनो उपचार करे छे तेने व्यवहारनय कह्यो छे अने
समयप्राभृतमां जेने अखंड वस्तुस्वभावमां न होवाथी अभूतार्थ कहेल छे तेने ज नयचक्रमां
भेदोपचार शब्दथी कहेवामां आवेल छे. व्यवहारनयनो विषय अभूतार्थ शा माटे छे एनो निर्देश करतां
पंचाध्यायीमां कह्युं छे :–
इदमत्र निदानं किल गुणवद् द्रव्यं बदुक्तमिह सूत्रे ।
अस्ति गुणोऽस्ति द्रव्यं तद्योगात्तदिह लब्धमित्यर्थात् ।। १–६३४।।
तदसन्न गुणोऽस्ति यतो न द्रव्यं नोभयं न तद्योगः ।
केवलमद्वैतं सत्भवतु गुणो वा तदेव सद् द्रव्यम् ।। १–६३५।।
तस्मान्न्यायागत इति व्यवहारः स्यान्नयोऽप्यभूतार्थः ।
केवलमनुभवितारस्तस्य च मिथ्याद्रशो हतास्तेऽपि ।। १–६३६।।
अर्थ : व्यवहारनयने अभूतार्थ कहेवानुं कारण ए छे के सूत्रमां द्रव्यने जे ‘गुणवाळुं’ कह्युं छे एनुं तात्पर्य
ए छे के गुण पृथक् छे. द्रव्य पृथक् छे अने एना संयोगथी द्रव्य प्राप्त थाय छे. १–६३४. परंतु ए असत्य छे. केम
के न गुण छे, न द्रव्य छे, न बन्ने छे अने न तो बन्नेनो संयोग छे परंतु सत् तो केवळ अद्वैत छे. चाहे तो एने
गुण मानो अथवा तो द्रव्य मानो. पण छे ते अद्वैतरूप ज. १–६३प. तेथी न्यायना बळथी एम सिद्ध थयुं के
व्यवहारनय होवा छतां अभूतार्थ छे. जे केवळ एनो अनुभव करे छे तेओ मिथ्याद्रष्टि अने पथभ्रष्ट छे. १–६३६.
९०. आ रीते गुणो अने पर्यायोना आश्रये अथवा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाळ अने स्वभावना
आश्रये भेदनो उपचार करी जे वस्तुने विषय करे छे ते व्यवहारनय छे ए उक्त कथननुं तात्पर्य छे. सद्भूत
व्यवहारनय ए एनुं ज नाम छे. एना मुख्य भेद बे छे:–अनुपचरित सद्भूत व्यवहारनय अने उपचरित
सद्भूत व्यवहारनय. जे पदार्थनो जे गुण के शुद्ध पर्याय छे ते गुण के पर्यायद्वारा ज आ नय ते पदार्थने
विषय करे छे तेथी तो एने सद्भूत व्यवहारनय कहे छे. जेम के ए कहेवुं के ज्ञान जीव छे ए सद्भूत
व्यवहारनयनुं उदाहरण छे. एमां एटली विशेषता बीजी छे के जो एमां अन्यना संबंधथी बीजुं विशे