अपरोडशुद्ध द्रव्यार्थिक इति तद्शुद्ध निश्चयो नाम ।। १–६६० ।।
इत्यादिकाश्च–वहवो भेदा निश्चयनयस्य यस्य मते ।
स हि मिथ्या द्रष्टिः स्यात् सर्वज्ञावमानितो नियमात् ।। १–६६१ ।।
नियमथी सर्वज्ञनी आज्ञानुं अपमान करनार छे, तेथी ते मिथ्याद्रष्टि ज छे. १–६६१
कथनशैलीथी ज करवामां आव्युं छे. तेथी जो परमार्थद्रष्टिथी जोवामां आवे तो निश्चयनय एक ज छे अने ते
ज मोक्षमार्गमां आश्रय करवा योग्य छे केम के तेनो आश्रय लईने स्वभाव सन्मुख थतां ज निर्विकल्प
शुद्धानुभूति प्रगटे छे. आ रीते निश्चयनय शुं छे अने जीवनमां साधकने माटे एनो शुं उपयोग छे एनो
विचार कर्यो.
आधारे अहीं आ नय अने एना भेदोने सांगोपांग विचार करीए छीए. वास्तवमां व्यवहार’ ए
व्युत्पत्तिवाळो शब्द छे. ए ‘वि’ अने ‘अव’ एवा उपसर्ग साथे ‘हृ’ धातुथी बन्यो छे. गुण अने पर्याय
वगेरेनुं आलंबन लईने अखंड वस्तुमां कोई प्रकारनो भेद करवो एवो एनो अर्थ थाय छे. एक तो ए
विकल्पात्मक श्रुतज्ञाननो एक भेद छे. बीजुं ए भेदनी मुख्यताथी ज वस्तुनो स्वीकार करे छे. तेथी जेटला
कोई व्यवहारनय छे ते उदाहरण सहित विशेषण–विशेष्यरूप ज होय छे.
व्यवहारापरनामा पर्यायार्थो नयो न द्रव्यार्थः ।। १–५९६ ।।