Atmadharma magazine - Ank 213a
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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अषाड : २४८७ : १प :
अर्थ: जेम कर्म वर्णादिवाळा मूर्तद्रव्यनो एक भेद छे तेथी ते नियमथी मूर्त छे. तेना संयोगथी
क्रोधादिक पण मूर्त छे. छतां तेने जीवमां थयेला कहेवा ए असद्भूत व्यवहारनय छे. १–प३०
९८. अहीं ए प्रश्न थाय छे के एवो नियम छे के एक द्रव्यना गुणधर्म अन्य द्रव्यमां संक्रमण पामता
नथी (बदलाईने भळी जता नथी.) एवी अवस्थामां अहीं जीवना रागादि भावोने मूर्त केम कह्या छे? केम
के मूर्त ए पुद्गलोनो धर्म छे. ते पुद्गलोने छोडीने जीवमां त्रणकाळमां संक्रमण पामी शकतो नथी अने ज्यारे
ते जीवमां संक्रमण पामी शकतो नथी त्यारे जे क्रोधादि भावोनुं उपादान कारण जीव छे तेमां ते त्रणकाळमां
प्राप्त थई शकतो नथी. जो ते भावोना नैमित्तिक होवा मात्रथी तेनामां मूर्त धर्मनी उपलब्धि थाय छे तो
अज्ञानदशामां पण क्रोधादिभावोनो कर्ता जीव न होतां पुद्गल थई जशे अने आ रीते आ भावोनुं कर्तृत्व
पुद्गलमां घटवाथी पुद्गल ज ते भावोनुं उपादान ठरशे के जे योग्य नथी. माटे रागादि भावोने मूर्त मानीने
असद्भूत व्यवहारनयनुं जे लक्षण आपवामां आवे छे ते न आपवुं जोईए. आ एक प्रश्न छे. समाधान ए
छे के अहीं जीवनी रागादिरूप अवस्थाथी त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावी जीवने भिन्न करवो छे. तेथी बधा वैभाविक
भावोथी व्याप्ति पुद्गल कर्मोनी साथे घटित थई शकवाने कारणे तेने अध्यात्मशास्त्रमां पौद्गलिक कहेवामां
आव्या छे. अने आ रीते ते पौद्गलिक छे एम नक्की थतां तेने मूर्त्त मानवामां पण कोई बाधा आवती नथी
केमके मूर्त कहो के पौद्गलिक (कहो) एक ज अर्थ छे. आ भावो पौद्गलिक छे. एनो निर्देश स्वयं आचार्य
कुन्दकुन्दे समय प्राभृत गाथा प० थी पप सुधी कर्यो छे. तेओ गाथा पपमां उपसंहार करतां कहे छे –
णेव य जीवट्ठाणा ण गुणट्ठाणा य अत्थि जीवस्स ।
जेण दु एदे सव्वे पुग्गलदव्वस्य परिणामा ।। ५५।।
अर्थ: जीवने जीवस्थान नथी अने गुणस्थाने य नथी कारण के ए बधा पुद्गलद्रव्यना परिणामो छे. पप
एनी टीका करतां आचार्य अमृतचन्द्र कहे छे –
तानि सर्वाण्यपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्य परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्।। ५५।।
आ जे जीवस्थान अने गुणस्थान आदि भाव छे ते बधा जीवना नथी, केमके ते बधा पुद्गल द्रव्यना
परिणाममय होवाथी आत्मानुभूतिथी भिन्न छे. पप
९९. अहीं परभावोनी जेम रागादि विभावरूप भावोथी त्रिकाळी ज्ञायकभावनुं भेदज्ञान कराववानुं
मुख्य प्रयोजन छे. पण ए प्रयोजनथी सिद्धि त्रिकाळी ध्रुवस्वभावरूप ज्ञायक भावमां तेनुं तादात्म्य
मानवाथी थई शकती नथी, केमके त्रिकाळी ध्रुवस्वभावमां तेनुं अस्तित्व ज प्राप्त थतुं नथी. जो त्रिकाळी
ध्रुवस्वभावमां पण तेनुं अस्तित्व मानवामां आवे तो तेमांथी ज्ञाननी जेम तेनो कदी पण अभाव थई
शके नहि. माटे ज ए जेना सद्भावमां होय छे तेना ज परिणाम छे एम अहीं कहेवामां आव्युं छे. ए
उक्त कथननुं तात्पर्य समजवुं जोईए. ए ज भावने पुष्ट करवाना अभिप्रायथी समयप्राभृतमां
आचार्य कुन्दकुन्द कहे छे–
ए ए हि य संबंधो जहेव खीरोदयं मुणेदव्वो ।
ण य हुंति तस्स ताणि दु उवओग गुणाधिगो जम्हा ।। ५७।।
अर्थ:–आ वर्णथी मांडीने गुणस्थान सुधीना भावोनी साथे जीवनो संबंध दूध अने पाणीना
संयोगसंबंध जेवो जाणवो जोईए. तेथी ते भाव जीवना नथी केम के ते उपयोगगुण वडे तेनाथी पृथक् छे. प७.
१००. अहीं आचार्य महाराजे परस्पर मिश्रित दूध अने पाणीनुं द्रष्टान्त आपीने ए बताव्युं छे के
जेवी रीते मळेला दूध अने पाणीमां संयोगसंबंध होय छे, अग्नि अने उष्ण गुणनी जेम तादात्म्य संबंध
होतो नथी तेवी ज रीते वर्णथी मांडीने आ गुणस्थान