Atmadharma magazine - Ank 213a
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : २१३
सुधीना बधा भावोनो जीवनी साथे संयोग संबंध जाणवो जोईए, तादात्म्य संबंध नहि.
१०१. जेवी रीते जीवनी साथे वर्णादिनो संयोग संबंध छे तेवी रीते जीवमां उत्पन्न थयेला आ
रागादि भावोनो जीवनी साथे संयोग संबंध केवी रीते होई शके ए प्रश्न उठावीने आचार्य जयसेने एनुं
समाधान कर्युं छे. तेओ कहे छे :–
ननु वर्णादयो बहिरंगास्तत्र व्यवहारेण क्षीरनीरवत् संश्लेष सम्बन्धो भवतु न चाभ्यन्तराणांं
रागादीनां। तत्राशुद्धनिश्चयेन भवितव्यम्? नैवम्, द्रव्यकर्मबन्धापेक्षया योऽसौ असद्भूतव्यवहार–
स्तदपेक्षया। तारतम्य ज्ञापनार्थं रागादीनामशुद्धनिश्चयो भण्यते। वस्तुतस्तु शुद्धनिश्चयायेक्षया
पुनरशुद्धनिश्चठयोऽपि व्यवहार एवेति भावार्थः।
शंका:– वर्णादि जीवथी अलग छे, तेथी तेमनी साथे जीवनो व्यवहारनयथी दूध अने पाणी जेवो
संश्लेष संबंध भले हो, पण आभ्यंतर रागादिनो जीवनी साथे संयोगसंबंध बनी शकतो नथी. ए बन्नेमां
तो अशुद्धनिश्चयरूप संबंध होवो जोईए.
समाधान:–एम नथी केम के द्रव्यकर्मबंधननी अपेक्षाए जे आ असद्भूत व्यवहार छे तेनी अपेक्षाए
एमां संश्लेष संबंध मानवामां आव्यो छे. जो के रागादि भावोनुं जीवमां तारतम्य बताववा माटे एने
अशुद्धनिश्चयरूप कहेवामां आवे छे. परंतु वास्तविक रीते शुद्धनिश्चयनी अपेक्षाए अशुद्धनिश्चय पण व्यवहार
ज छे ए उक्त कथननो भावार्थ छे.
१०२. बृहद् द्रव्यसंग्रह गाथा १६ नी टीकामां पण आ विषयने स्पष्ट करतां लख्युं छे:–
तथैवाशुद्धनिश्चयनयेन योऽसौ रागदिरूपो भावबन्धः
कथ्यते सोऽपि शुद्धनिश्चनयेन पुद्गलबन्धः एव ।
तेवी ज रीते अशुद्ध निश्चयनयथी जे आ रागादिरूप भावबंध कहेवाय छे ते पण शुद्धनिश्चयनयनी
अपेक्षाए पुद्गल बन्ध ज छे.
१०३. एनो जीवनी साथे संयोगसंबंध शा माटे कहेवामां आव्यो छे. ए विषय स्पष्ट करवाने माटे
मूळाचार गाथा ४८ नी टीकामां आचार्य वसुनन्दि संयोगसंबंधनुं लक्षण आपतां कहे छे:–
अनात्मनीनस्यत्मभावः संयोगः। संयोग एव लक्षणं येषां ते संयोगलक्षणा विनश्वरा इत्यर्थ।
अर्थ: अनात्मीय पदार्थमां आत्मभावनुं होवुं ते संयोग छे. संयोग ज जेमनुं लक्षण छे ते
संयोगलक्षणवाळा अर्थात् विनश्वर मानवामां आव्या छे.
१०४. अहीं (चालता विषयमां) आचार्य कुन्दकुन्दे रागादि भावोने जे संयोग लक्षणवाळा कह्या छे
ते आ ज अपेक्षाथी कह्या छे कारण के ए बन्धपर्यायरूप होवाथी अनात्मीय छे माटे मूर्त छे. तात्पर्य ए छे के
रागादि भावोने आत्माथी संयुक्त बताववामां उपादाननी मुख्यता न होतां बंधपर्यायनी मुख्यता छे. केम के
ए पौद्गलिक कर्मोना सद्भावमां ज थाय छे, अन्यथा थतां नथी. अने जो ए पौद्गलिक कर्मोना सद्भावमां
ज थाय छे तो एने मूर्तरूपे स्वीकारवानुं न्यायसंगत ज छे. अहीं बे द्रष्टि छे:– एक उपादानद्रष्टि अने बीजी
संयोगद्रष्टि. रागादिने अनात्मीय कहेवामां संयोगद्रष्टिनी ज मुख्यता छे, नहितर एनो त्याग करवानुं बनी
शके नही. अहीं एमने मूर्त अथवा पौद्गलिक मानवानुं ए ज कारण छे.
१०प. आ रीते जीवमां होवा छतां पण क्रोधादिभाव मूर्त केवी रीते छे ए सिद्ध थयुं अने ए सिद्ध
थतां मूर्त केवी रीते छे ए सिद्ध थयुं अने ए सिद्ध थतां मूर्त क्रोधादिने जीवना कहेवा ए असद्भूत
व्यवहारनय ज छे एम अहीं निश्चय करवो जोईए. (क्रमश:)