वंदी कहुं श्रुतकेवळी कथित आ समयप्राभृत अहो! १
जे सिद्धपद, तेने साधवानो जे भाव प्रगट्यो एटले सिद्धसन्मुख जवानुं शरू कर्युं–ते ज मांगलिक छे.
अत्यारसुधी अनंता सिद्धभगवंतो थया ते सर्वने भावस्तुति तथा द्रव्यस्तुति वडे पोताना आत्मामां तथा
परना आत्मामां स्थापीने आ समयसार शरू करुं छुं. भावस्तुति एटले अंतर्मुख निर्विकल्प शांतरसनुं
परिणमन अने द्रव्यस्तुति एटले सिद्धोना बहुमाननो विकल्प तथा वाणी; एम बंने प्रकारे स्तुति करीने,
मारा तेम ज श्रोताजनोना आत्मामां अनंत सिद्धभगवंतोने स्थापुं छुं. मारो “आत्मा केवडो? के अनंता
सिद्धोने पोतामां समावी दे तेवडो. आत्मामां ज्यां सिद्धोने स्थाप्या त्यां हवे तेमां राग रही शके नहि. ज्यां
सिद्धोनो आदर कर्यो त्यां रागनो आदर रहे नहि; एटले सिद्धने पोतामां स्थापतां ज राग साथेनी
एकत्वबुद्धि तूटी गई, पंचमकाळनो साधक आत्मा पोताना सिद्धपद माटे प्रस्थानुं मूके छे. हे सिद्धभगवंतो!
सिद्धपदने साधवा हुं उपड्यो छुं त्यां शरूआतमां ज मारा आत्मामां आपने स्थापुं छुं अने हे श्रोताजनो!
तमारा आत्मामां पण सिद्धपणुं स्थापुं छुं. होंसथी हा पाडजो! ना न पाडशो. अमारो श्रोता एवो ज होय के
जे पोताना आत्मामां सिद्धपणुं स्थापीने सांभळे छे. एकला रागमां ऊभो रहीने नथी सांभळतो, पण पहेले
धडाके सिद्धपदना भणकार लेतो आवे छे. “हुं सिद्ध...तुं सिद्ध” –एम श्रवण करतां ज आत्मा अंदरथी हकार
करतो आवे छे.
अवकाश छे के अनंता सिद्धपरमात्मा सर्वज्ञोने पोतामां स्थापीए छीए.
संसारथी–रागथी जुदो पडीने सिद्धनी–शुद्धात्मानी नातमां भळुं छुं.