Atmadharma magazine - Ank 213a
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : २१३
स्थापु छुं एम कहीने आचार्यदेवे शरूआतथी ज श्रोताने भेगो उपाडीने वात करी छे.
आ रीते सर्वसिद्धोने आत्मामां स्थापीने आ समयसारनुं भाववचनथी (श्रुतज्ञानथी) अने
द्रव्यवचनरूप वाणीथी परिभाषण करीए छीए. जेवी शरूआत करी तेवी पूर्णता थई छे. अलौकिक रचना छे.
अहा, भरतक्षेत्रमां जन्मीने देहसहित जेमणे विदेहक्षेत्रना तीर्थंकरना साक्षात् दर्शन कर्या तेमनी पात्रता अने
पुण्यनी शी वात!!
सिद्धभगवंतोने ओळखीने अने पोताना आत्मामां तेवी ताकात छे एने ओळखीने, ए रीते बंनेने
ओळखीने सिद्धने पोतामां स्थाप्या छे. साध्य जे शुद्धात्मा तेनी प्रतिछंदना स्थाने सिद्धभगवंतो छे तेथी ते
ध्येयरूप छे ते सिद्धभगवंतनुं स्वरूप चिंतवीने अने तेमना समान पोताना स्वरूपने ध्यावी–ध्यावीने
संसारीजीवो पण तेमना जेवा सिद्ध थई जाय छे. जेणे अंतरमां सिद्धने स्थाप्या ते सिद्धनो वारस थयो, ते
सिद्धनो साधक थयो; जेवा सिद्धपरमात्मा छे तेवो ज हुं छुं, एम स्वभावनी मुख्यता करीने रागने गौण करी
नाख्यो, एमां परम आस्था थई ते सिद्धसमान पोताना शुद्धात्माने ध्यावीने जीव पोते सिद्ध थई जाय छे.
जेम बाळक माताने धावीधावीने पुष्ट थाय छे, तेम साधक जीव सिद्धसमान पोताना शुद्धस्वरूपने
ध्यावीध्यावीने सिद्धपदने साधे छे.
संसारनी चारे गतिथी विलक्षण एवी जे पंचमगति तेने शुद्धस्वरूपना ध्यानवडे आ समयसारना
वक्ता अने श्रोता चोक्कस पामे छे, तेमां शंकाने स्थान नथी. आवा उत्तमभावपूर्वक सिद्धभगवंतोने
आत्मामां पधरावीने आ समयसार शरू कर्युं छे.
सिद्धगति स्वभावरूप छे; संसारनी चारे गति तो परभावथी उत्पन्न थयेली छे, कर्मना निमित्तथी
थयेलो जे विभाव, तेनाथी थयेली देवादि चारे गति अध्रुव छे; ने आ पंचमगति तो स्वभावभावरूप
होवाथी ध्रुव छे, तेमां हवे विनाशीकता नथी, ए सादिअनंत एवी ने एवी टकी रहेशे चारे विभावगतिओने
अने तेना कारणरूप विभावभावोने मारा आत्मामांथी काढी नाखीने आवा सिद्धभगवंतोने स्थाप्या छे,
एटले हवे परिणतिनो प्रवाह विभावमांथी पाछो वळीने स्वभाव तरफ वळ्‌यो छे. व्यवहार अने निमित्तनुं
उपादेयपणुं काढी नाखीने एकला स्वभावनुं ज उपादेयपणुं द्रष्टिमां लीधुं छे. जुओ आ सिद्धपदना साधकनुं
मांगळिक!” पुत्रनां लक्षण पारणामांथी जणाय” तेम सिद्धपदने साधवा जे ऊभो थयो तेना आवा लक्षण
शरूआतमां ज होय छे. पहेलेथी ज जे रागनी रुचि ने होंस करे छे तेनामां सिद्धपदने साधवानां लक्षण नथी.
सिद्धपदने साधवा जे जाग्यो ते पहेले ज धडाके सिद्धपदने ज आत्मामां स्थापीने राग अने विकल्पनी रुचिने
काढी नाखे छे: आहा! –
‘काम एक आत्मार्थनुं, बीजो नहि मनरोग’
आत्माना स्वभाव सिवाय बीजुं कोई (राग के विकल्प) तेनुं माहात्म्य लई जाय–एम नथी; तेना
अंतरमां एक शुद्ध आत्मानुं ज माहात्म्य वस्युं छे. एनाथी अधिक जगतमां बीजी कोई वस्तुनुं माहात्म्य तेने
आवी जाय–एम बनतुं नथी. “सिद्ध–सिद्ध’ ना भणकारा करतो जाग्यो ते बीजे क्यांय रागादिमां अटकतो
नथी. जुओ आ सिद्धपद माटे साधकना महा मांगळिक!
केवळी अने श्रुतकेवळी भगवंतोए कहेला आ समयप्राभृतने हुं मारा अने परना मोहना नाशने
माटे हुं कहीश. सिद्धसमान आत्माने ध्येयरूपे राखीने आ शरू कर्युं छे, माटे ते ध्येयने चूकशो नहीं.
आचार्यदेवने पोताने तो मिथ्यात्वादि मोहनो नाश थयो छे, पण हजी जराक संज्वलन कषाय बाकी छे तेनो
नाश करवा माटे आ समयसारनुं परिभाषण करे छे, अने श्रोतामां जेने जे प्रकारनो मोह होय तेना नाशने
माटे आ श्रवण करजो. एटले वक्ता अने श्रोतामां जेने जे प्रकारे मोह होय तेना नाशने माटे आ समयसार
शरू करवामां आवे छे. आ समयसार समजे तेना मोहनो नाश थई जशे–एम आचार्यदेवना कोलकरार छे.