Atmadharma magazine - Ank 216
(Year 18 - Vir Nirvana Samvat 2487, A.D. 1961)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B 5669
अखूट भंडार
अचिंत्य आत्मवैभव देखाडीने वीतरागी संतोए महान उपकार कर्यो छे.
आत्माना ध्रुवस्वभाव ज्ञान ने आनंदनो एवो अखूट भंडार छे के
तेमांथी ज्ञान–आनंद नीकळ्‌या ज करे; गमे तेटला ज्ञान–आनंद तेमांथी काढो
छतां खूटे नहि के घटे पण नहि. आत्माना ध्रुवस्वभावमांथी आनंद प्रगट करी
करीने करोडो–अबजो–असंख्य वर्षो सुधी तेनो भोगवटो कर्यो, तो हवे
आत्मामांथी आनंद खूटी तो नहि जाय ने!–एम धर्मीने शंका नथी पडती.
धर्मी तो पोताना ध्रुव स्वभावने अवलंबीने आनंदना भोगवटामां पड्या छे,
स्वभावनी द्रष्टिमां ते एवा निःशंक छे के सादि–अनंतकाळ सुधी सिद्धदशामां
परिपूर्ण आनंद समये समये भोगव्या ज करीश छतां मारा स्वभावनो
आनंद खूटशे नहि–एवी मारा ध्रुवस्वभावनी अचिंत्य ताकात छे. अहो!
मारा द्रव्यनुं कोई अचिंत्य सामर्थ्य छे के समये समये परिपूर्ण ज्ञान–आनंद
आप्या ज करे छतां अनंतकाळे पण मारुं सामर्थ्य जराय ओछुं न थाय.
जुओ, आ आनंदनो अखूट भंडार!!
एवो अखूट भंडार आत्मामां भरेलो छे के तेमांथी ज्यारे निर्मळता
काढवी होय त्यारे नीकळे, अने जेटली काढवी होय तेटली नीकळे. अनादि
काळथी मलिनता करी माटे हवे चैतन्य खाणमांथी निर्मळता आपवानी शक्ति
हणाई गई–एम नथी; निर्मळता आपवानी आत्मस्वभावनी शक्ति तो
एवी ने एवी परिपूर्ण वर्ती ज रही छे. ज्यारे अंतर्मुख थईने तेने पकडे त्यारे
तेमांथी निर्मळता प्रगटे छे. पोतामांथी निर्मळता आपी–आपीने द्रव्य कदी
थाकी जाय के निर्मळपर्याय आपतुं अटकी जाय अथवा तो निर्मळता
आपवानी तेनी शक्ति खूटी जाय–एम कदी बनतुं नथी; द्रव्यनी शक्ति
रंचमात्र घटती नथी. एक पर्याय पलटीने बीजी, बीजी पलटीने त्रीजी, त्रीजी
पलटीने चोथी, चोथी पलटीने पांचमी...एम अनंतकाळ सुधी ज्ञान–आनंदथी
परिपूर्ण पर्यायो ध्रुवस्वभावमांथी लीधा ज करो–लीधा ज करो छतां
ध्रुवशक्तिनो भंडार जराय घटतो नथी. अहा! आवी ध्रुवशक्तिना भंडार
पोताना आत्मस्वभावने जे प्रतीतमां ल्ये ते साधक थई जाय, ने पोताना ध्रुव
भंडारमांथी ज्ञान–आनंदमय निर्मळपर्यायोनो प्रवाह अखूटपणे तेने चाल्या
करे. अहा, पोतानो अखूट भंडार जेना हाथमां आवी गयो ते जीवने
बहारमांथी–रागमांथी के परमांथी–कांई पण लाभ लेवानी बुद्धि स्वप्नेय केम
रहे? ते तो पोताना अखूट आत्म भंडारमांथी ज्ञान–आनंद काढी काढीने तेने
भोगव्या ज करे.
वीगरागी संतोए आवा अचिंत्य आत्मवैभवनो खजानो
देखाडीने जगतना जीवो उपर परम उपकार कर्यो छे.
दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती मुद्रक–प्रकाशक: हरिलाल देवचंद शेठ आनंद प्रिन्टींग प्रेस–भावनगर.