Atmadharma magazine - Ank 218
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४८८ : १३ :
अ नु भू ति नी री त
(समयसार गाथा – १४४ना प्रवचनमांथी)
“अनुभव चिंतामणि रतन, अनुभव है रसकूप,
अनुभव मारग मोक्षनो, अनुभव मोक्षस्वरूप.”

मंगल–आशयवाळा जिज्ञासु शिष्ये पूछयुं हतुं के–पक्षातिक्रान्तनुं शुं स्वरूप छे? तेनो आ उत्तर चाले
छे. जेम केवळी भगवान समस्त नयपक्षोथी अतिक्रान्त छे तेम श्रुतज्ञानी पण स्वसंवेदनमां समस्त
नयपक्षना ग्रहण रहित होवाथी पक्षातिक्रान्त छे. आ रीते जे पक्षातिक्रान्त छे ते ज शुद्धआत्मा छे, ते ज
समयसार छे–एवो नियम बतावे छे, अने तेवुं पक्षातिक्रान्तपणुं केम प्रगटे अर्थात् सम्यग्दर्शन केम प्रगटे ते
वात १४४मी गाथामां आचार्यदेव अलौकिक रीते समजावे छे–
सम्यक्त्व तेम ज ज्ञाननी जे एकने संज्ञा मळे,
नयपक्ष सकल रहित भाख्यो ते समयनो सार छे.
शुद्धात्माना विकल्पो ऊठे तेने कांई सम्यग्दर्शन नथी कहेवातुं; सम्यग्दर्शन एवुं नाम तो शुद्धआत्माने
ज कहेवाय छे. अंतर्मुख थईने जे आत्मा सम्यक््–श्रद्धा–ज्ञानरूपे परिणम्यो तेने ज सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञान कहेवामां आवे छे. ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो विकल्प ऊठयो ते कांई सम्यग्दर्शन नथी. तेमज ते खरेखर
सम्यग्दर्शननुं साधन पण नथी. नवतत्त्वना विकल्पनी जाळमां जेनो उपयोग अटक्यो छे तेनो उपयोग
खंडित थाय छे, तेने ‘सम्यग्दर्शन’ एवुं नाम आपी शकातुं नथी. विकल्पोथी दूर थईने–अंतर्मुख स्वभावमां
जे उपयोग वळ्‌यो ते उपयोग स्वरूपना ध्यान वडे आत्मद्रव्य साथे एकाकार अभेद थयो. आवी अभेदपर्याये
परिणमेलो आत्मा ते ज सम्यग्दर्शन छे. अहा, ज्यां सुधी स्वसन्मुख निर्णय वडे अंतरमां स्ववस्तुने पहोंची
वळवानी ताकात प्रगट न करे त्यां सुधी चैतन्यतत्त्व अनुभवमां आवे नहि. “आ चैतन्यवस्तु ज हुं छुं ने
तेमां ज मारे ढळवा जेवुं छे.” एवा निर्णयना जोर वगर ज्ञाननुं परिणमन अंतरमां वळे नहीं. विकल्पो तो
थाकी थाकीने पाछा वळे छे, तेनामां एवी ताकात नथी के चैतन्यस्वभाव सुधी पहोंची शके. विकल्पनुं
अवलंबन छोडीने सीधुं ज्ञानानंदस्वभावनुं अवलंबन करवुं ते ज स्वानुभवनो ने सम्यग्दर्शनादिनो उपाय
छे.
हवे जुओ, आचार्यदेव स्वानुभवनी रीत समजावे छे:
“प्रथम तो श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञान स्वभावी आत्मानो निश्चय करीने...” जुओ, आ
पहेली वात! अनुभव माटे प्रथम शुं करवुं? तो कहे छे के प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभाव
आत्मानो निश्चय करवो. पहेलां रागनुं अवलंबन के व्यवहारनुं अवलंबन–एम नथी. श्रुतज्ञाननुं ज अव–