Atmadharma magazine - Ank 218
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म: २१८
बहिस्तुष्यति मूढात्मा पिहितज्योतिरन्तरे।
तुष्यत्यन्तः प्रबुद्धात्मा बहिर्व्यावृत्त कौतुकः।।
६०।।
धर्मी तो जाणे छे के अहो! मारा आत्माना अनुभवनो जे अतीन्द्रिय आनंद छे, ते आनंद जगतमां
बीजे क््यांय नथी. आवा भावमां ‘धर्मी तो आत्मस्वरूपमां ज संतुष्ट छे. तेने बाह्यविषयोमांथी कौतुक ऊडी
गयुं छे; पण जेने आत्माना आनंदनी खबर नथी एवो मूढ बहिरात्मा बाह्य विषयोमां सुख मानीने तेनुं ज
कौतुक करे छे, ने तेमां ज प्रीति करे छे, चैतन्यनी प्रीति के तेनो महिमा करतो नथी, ते तो बाह्यमां शरीरादि
विषयोमां ज संतुष्ट वर्ते छे. पण अरे मूढ! तेमां क््यांय तारुं सुख नथी, सुख तो चैतन्यतत्त्वमां ज छे; माटे
एकवार तारा चैतन्यतत्त्वने जाणवानुं तो कौतूहल कर.
अमृतचंद्राचार्य देव समयसारमां पण कहे छे के–रे जीव! तुं देहादि परद्रव्योनो पाडोशी थईने
एटले के तेनाथी जुदापणुं जाणीने एकवार अंतरमां तारा चैतन्यने जाणवानो प्रयत्न कर तो जरूर
तने आनंदना विलास सहित तारुं चैतन्यतत्त्व अंतरमां देखाशे. उग्र रुचि अने उग्र पुरुषार्थ माटे
आचार्यदेव कहे छे के तुं मरीने पण तत्त्वनो कुतूहली था, एटले के चैतन्यतत्त्वने जाणवा माटे तारुं
जीवन अर्पी दे...जीवनमां चैतन्यने अनुभववा सिवाय मारे बीजुं कांई काम छे ज नहि. लाख
प्रतिकूळता आवे के मरण आवे तो पण मारे मारुं चैतन्यतत्त्व जाणवुं छे. एम एकवार द्रढ निश्चय
करीने साची धगशथी प्रयत्न कर तो जरूर चैतन्यनो अनुभव थशे.
अयि कथमपि मृत्वा तत्त्व कौतूहली सन्
अनुभव भवभूर्तेः प्रार्श्ववर्ती मुहूर्तम्।
पृथगथ विलसंतं स्वं समालोकय येन
त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम्।। १३।।
अहो, आचार्यदेव कहे छे के उत्कृष्ट रुचिथी चैतन्यना अनुभवनो प्रयत्न कर तो मात्र बे घडीमां जरूर
तेनी प्राप्ति थाय अने मोह नाश पामे.
ज्ञानी पोताना अंतरंग चैतन्यमां ज पोतानो आनंद देखे छे, बाह्यमां क््यांय तेने सुखनो आभास
थतो नथी, माटे तेनी प्रीति बाह्यथी छूटीने अंतरमां वळी गई छे. ते ज्ञानीओ समजावे छे के अहो जीवो
अंतरमां ज आनंद छे तेने देखो, बहारमां आनंद नथी;–आम वारंवार समजाववा छतां मूढ–अज्ञानी जीव
अविवेकने लीधे समजतो नथी ने बाह्यविषयोमां–रागादिमां ज आनंद मानीने तेनी प्रीति करे छे. चैतन्यनी
प्रीति करतो नथी. तेथी तेने समाधि थती नथी; ज्ञानीने तो चैतन्यना आनंद पासे आखा जगतनुं कुतूहल
छूटी गयुं छे, तेथी तेने तो निरंतर समाधि वर्ते छे. चैतन्यना आनंदने ओळखीने तेनी प्रीति करवी. तेमां
लीनता करवी ते ज निर्विकल्पशांति अने समाधिनो उपाय छे. मूढ अज्ञानीने बाह्यविषयोमां ने रागमां सुख
लागे छे, ने चैतन्यमां सुख नथी लागतुं. ज्ञानी धर्मात्माने ते बाह्यविषयोमां के रागमां स्वप्नेय सुख लागतुं
नथी, ते बाह्यविषयोथी उदासीन छे, ने चैतन्यना अतीन्द्रिय सुखनी प्रीति करीने तेमां ज लीनतानो उद्यम
करे छे.–आज समाधिनो उपाय छे.
।। ६०।।
मूढ जीव बहिरात्मबुद्धिने लीधे देहादिक अचेतन द्रव्योमां निग्रह के अनिग्रह करवानी बुद्धि करे छे
पण चैतन्यना भावमां विपरीतभावोनो निग्रह अने सम्यक् भावोनुं सेवन करवानुं ते जाणतो नथी.–ए
वात हवेनी गाथामां कहेशे.