ने आत्मा आत्मारूप थाय क््यारे? स्वभाव तरफ वळतां कर्मनुं निमित्तपणुं छूटी जाय छे.
एटले स्वसन्मुख थवानो अवसर ज रहे नहि. परना कार्यमां निमित्तपणे उपस्थित थया करे एटले पर
सन्मुख ज रह्या करे ने स्वसन्मुखता तो थाय ज नहि, परप्रकाशकपणुं ज एकांत रह्या करे ने स्वप्रकाशन तो
थाय नहि, एटले सम्यग्ज्ञान थाय नहि. माटे स्वभावथी आत्मा परना कार्यनो निमित्त छे एवी जेनी द्रष्टि
छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्यात्वभावे विकारनो कर्ता थईने ते कर्मना बंधनमां निमित्त थाय छे; पण ते
मिथ्यात्वभावने ‘आत्मा’ कहेता नथी. ज्ञानस्वभावे परिणमतो आत्मा ते ज खरेखर आत्मा छे, ने ते
आत्मा कर्मबंधननो के परनां कार्यनो निमित्त कर्ता पण नथी.
थवुं छे, पण स्व–पर प्रकाशक ज्ञातापणे नथी रहेवुं. अज्ञानी परनो निमित्त थवा जाय छे तेमां
स्वसन्मुखज्ञानने चूकी जाय छे ने विकारना कर्तृत्वमां अटकी जाय छे. ज्ञानी तो “मारो आत्मा
निमित्तपणे पण परनो कर्ता नथी.” एम जाणीने उपयोगने परथी पाछो वाळी स्वभावमां ज
उपयोगने वाळे छे, ए रीते स्वभाव तरफ वळेलो स्वपरप्रकाशक उपयोग पोते तो परना कार्यनो
निमित्तकर्ता नथी थतो, परंतु ऊलटुं परज्ञेयोने ज्ञातापणे जाणतो थको तेने पोताना ज्ञाननुं निमित्त
बनावे छे. जुओ तो खरा, द्रष्टि बदली त्यां बधुं बदली गयुं. पहेलां पोते अज्ञानभावे परनो निमित्त
थतो, तेने बदले हवे परने पोताना ज्ञाननुं निमित्त बनावे छे. स्व–पर प्रकाशक सामर्थ्य वडे परने
ज्ञेयपणे ज जाणतो थको तेने पोताना ज्ञाननुं निमित्त बनावे छे.
* जो त्यां कुंभारनो आत्मा सम्यग्द्रष्टि होय तो ते सम्यग्द्रष्टिनी निर्मळ परिणति तो चैतन्य साथे ज
भिन्नपणे होवाथी ते काळे ज्ञानी तेनो अकर्ता छे.
निमित्त छे. पण ए निमित्तपणानुं कर्तृत्व तो अज्ञानभावमां छे, ने ते अज्ञानभावने तो ‘आत्मा’ ज कहेता
नथी. ज्ञानस्वभावी आत्मा तो अकर्ता ज छे.
कर्मनुं निमित्त तो योग अने कषाय छे, तेथी निमित्तकर्तापणुं तेने ज लागु पडे छे के जे योग अने कषायनो
कर्ता थईने परिणमे छे.