Atmadharma magazine - Ank 218
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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मागशर: २४८८ : ९ :
स्व–पर प्रकाशक शक्ति खीली ते निश्चय, अने परज्ञेय निमित्तरूप ते व्यवहार.
परना निमित्तकर्ता थवानी बुद्धि ज्यां सुधी छे त्यां सुधी परसन्मुखबुद्धि होवाथी संसार ज छे.
स्वभावमां जे विकारने तन्मय माने छे ते ज विकारनो कर्ता थाय; अने विकारनो जे कर्ता थाय ते ज कर्म
वगेरेनो निमित्त थाय. एटले जेनी द्रष्टिमां परनुं निमित्त थवानी बुद्धि छे तेनी द्रष्टि विकारमां ज तन्मय थई
छे, एटले विकारनुं ज सेवन करी करीने अने निर्विकार ज्ञानस्वभावनो अनादर करी करीने ते निगोदमां
जशे. ज्ञानी तो विकारनुं अने चैतन्यनुं अत्यंत भेदज्ञान करीने, विकारथी भिन्न चिदानंद स्वभावनी ज
आराधना करतां करतां, कर्मनुं निमित्त–कर्तापणुं पण छोडीने पोताना सिद्धपदने साधे छे.
निमित्तकर्ता थवानी द्रष्टिनुं फळ निगोद...
स्वभावसन्मुखद्रष्टिनुं फळ सिद्धदशा...
जुओ, द्रष्टि फेरे सृष्टिनो फेर छे. ज्यां जेनी द्रष्टि पडी छे ते तरफ तेनी सृष्टि एटले के पर्यायनी उत्पत्ति थाय छे.
(आसो वद चोथ बपोरे)
जे जेनो कर्ता होय ते तेनाथी जुदो न होय; आत्मा जो परनो कर्ता होय तो ते परथी जुदो न होय.
आत्मा घडाने करे तो घडाथी अभिन्नपणाने लीधे आत्मा ज घडो थई जाय.–पण एवी वस्तुस्थिति नथी.
आत्मा परनो कर्ता नथी. अज्ञानभावथी आत्मा पोताना विकारीभावोने करे छे, जेनी द्रष्टि चैतन्यथी बाह्य
छे, जेनुं वलण बहिर्मुखछे–एवो अज्ञानी जीव परसन्मुख वर्ततो थको, क्षणिक योग–अने बहिर्मुख उपयोग
वडे ज कर्मनो निमित्तकर्ता थाय छे. आ निमित्तकर्तापणुं क्षणिक अज्ञानथी ज छे, पण आत्मद्रव्यना
स्वभावमां तो निमित्तकर्तापणुं पण नथी. विकारने करे ने कर्मने निमित्त थाय–एवुं आत्माना द्रव्यस्वभावमां
छे ज नहि...आवो स्वभाव द्रष्टिमां–प्रतीतमां लेवो ने स्वभावसन्मुख थईने निर्मळ–अकर्ता–चैतन्यभावे
परिणमवुं ते धर्म छे, ते ज्ञानी धर्मात्मानुं कार्य छे.
द्रव्य–गुण अने तेमां अभेद थयेली निर्मळ पर्याय–तेटलो ज आत्मा परमार्थ छे; विकार ते आत्मानुं
परमार्थ स्वरूप नथी. माटे विकार, निमित्त अने कर्म नैमित्तिक–एवा निमित्त–नैमित्तिक संबंध उपर जेनी
द्रष्टि छे तेने शुद्धआत्मा उपर द्रष्टि नथी. भाई, तारी द्रष्टिने तुं शुद्धआत्मामां जोड, अने निमित्त–नैमित्तिक
संबंधनी द्रष्टि छोड. जे उपयोग अंतरना स्वभावमां वळ्‌यो ते उपयोगमांथी कर्मनुं निमित्तकर्तापणुं छूटयुं. ते
उपयोगे निजस्वभाव साथे संबंध जोडयो अने कर्म साथेनो निमित्तसंबंध तोडयो.–आ रीते पर साथेनो
संबंध तोडीने पोताना शुद्धात्मामां उपयोगने जोडवो–ते तात्पर्य छे.
सम्यग्द्रष्टि नानी बालिका हो के मोटो हाथी हो, ते पोताना आत्माने आवो ज अनुभवे छे के मारो
आत्मा कर्मनो निमित्त पण नथी. कर्मने निमित्त थाय ते मारुं स्वरूप नहि. शरीरादि जडनी क्रियानो हुं कर्ता
तो नहि, ने तेनी क्रियानो हुं निमित्त पण नहि. हुं तो निर्मळ ज्ञानक्रियानो ज कर्ता छुं.
आ मध्यलोकमां, अढीद्वीप बहार असंख्याता सम्यग्द्रष्टि तीर्यंचो छे. तेमां कोईने
जातिस्मरणज्ञान होय, कोईने अवधिज्ञान पण होय, कोईने संयतासंयतरूप पांचमुं गुणस्थान
(श्रावकपणुं) होय; तीर्यंचने पण श्रावकपणुं होय छे. मनुष्योमां तो सम्यग्द्रष्टि जीव संख्याता ज छे; ने
तीर्यंचोमां असंख्य सम्यग्द्रष्टि जीवो छे. संमूर्छन सिवायना मनुष्योनी संख्या ज थोडी (संख्याती) छे,
ने तेमांय सम्यग्द्रष्टि तो बहु थोडा छे, तीर्यंचोनी घणी मोटी संख्या (असंख्यात) छे, ने तेमां
असंख्यातमा भागे सम्यग्द्रष्टि छे, छतां ते पण असंख्याता छे; कोई माछलां होय, कोई सिंह होय,
कोई हाथी होय, कोई बन्दर होय, कोई नोळीया