: १० : आत्मधर्म: २१८
होय कोई सर्प होय–एवा एवा तीर्यंचोना जीवो पण चैतन्यनुं भान करीने सम्यग्दर्शन पामे छे; ते बधाय
जीवो पोताना आत्माने आवो ज अनुभवे छे के जे निर्मळभाव मारा स्वभावना आश्रये प्रगट्यो तेनो ज
हुं कर्ता छुं; मलिनभाव ते मारा स्वभावनुं कार्य नथी.
ए रीते, ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे–ए वात आचार्यदेव १०१मी गाथामां समजावे छे:–
अज्ञानी अज्ञानभावथी मात्र पोताना विकारने ज करतो हतो ने पुद्गलकर्मने निमित्त थतो हतो.
हवे ते वातनी गुंलाट मारीने ज्ञानीनुं कार्य आचार्यदेव समजावे छे के ज्ञानीधर्मात्मा पोताना ज्ञानस्वभावथी
भरेला एवा ज्ञानमयभावने ज करे छे अने पुद्गलद्रव्यना परिणामने ते पोताना ज्ञाननुं ज निमित्त बनावे
छे.
* अज्ञानी तो पोताना उपयोगने मलिन करीने पुद्गलकर्मनुं निमित्त बनावतो हतो.
ज्ञानी तो पुद्गलना परिणामने पोताना निर्मळ उपयोगनुं ज्ञेय बनावतो थको–तटस्थपणे तेने
जाणतो थको–तेमां जोडाया वगर तेनो ज्ञाता रहेतो थको–तेने पोताना ज्ञाननुं ज निमित्त बनावे छे.
ज्ञेयज्ञायकरूप निर्दोष संबंध सिवाय पर साथे ज्ञानीने बीजो कोई संबंध नथी, विकाररूप निमित्त–
नैमित्तिक संबंध तेने तूटी गयो छे. ज्ञेय–ज्ञायक संबंधमां तो पोताना स्व–परप्रकाशक सामर्थ्यनी प्रसिद्धि छे,
तेमां कांई विकार नथी. द्रष्टिना जोरे ज्ञानस्वभावना आश्रये स्व–पर प्रकाश सामर्थ्यनो ज्ञानीने विकास ज
थई रह्यो छे, ते तो पोताना ज्ञानमय भावमां (सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ते त्रणेय ज्ञानमय भाव ज छे–
तेमां) ज परिणमे छे; तेना ज्ञानमय भावमां बधा आगमनो सार आवी गयो छे, ते जीव
‘अबंधपरिणामी’ थई गयो छे.
अबंधस्वभावी तो बधा आत्मा छे, ने ज्ञानी तो ‘अबंधपरिणामी’ छे. ज्ञानीना परिणाम
अबंध छे,–बंधपरिणाम ज्ञानीने छे ज नहि. अबंधपरिणाम थया ते कोने निमित्त थाय?
अबंधपरिणाम शुं कर्मना निमित्त थाय? अबंधपरिणाम तो ज्ञान ने आनंदमय छे; आवा अबंध
परिणामे परिणमतो ज्ञानी विकारनो कर्ता नथी. कर्मबंधनो निमित्त नथी. वाह! विकारथी ने कर्मथी
छूटो ज थई गयो.
प्रसिद्ध हो के सम्यग्दर्शन ते संवर–निर्जरा ने मुक्ति छे, ने सम्यग्द्रष्टिने आस्रव–बंध नथी. अने
प्रसिद्ध हो के मिथ्यात्व ही संसार है; मिथ्याद्रष्टिने ज आस्रव–बंध छे. आहा, द्रष्टिनी आ वात समजे तो
आखी दशा फरी जाय.
ज्ञानावरण वगेरे आठेय कर्मो, शरीर वगेरे–नोकर्मो के रागादि भावकर्मो ते बधायने ज्ञानी पोताना
ज्ञानपरिणामथी भिन्न ज देखे छे. तेनो थईने तेने नथी जाणतो, पण तटस्थ रहीने तेने जाणे छे, ज्ञानमय
रहीने ज जाणे छे. आ रीते ज्ञानी ज्ञाननो ज कर्ता छे. ‘ज्ञान’ कयुं? के अंदरमां वळीने अभेद थयुं ते; एकला
शास्त्र वगेरे बहारना जाणपणाने अहीं ज्ञान नथी कहेता; ज्ञानस्वभाव तरफ वळीने तेमां तन्मयपणे
आनंदनो अनुभव करतुं जे ज्ञान प्रगट्युं ते ज्ञानना ज ज्ञानी कर्ता छे.
अहो! ज्ञानीनुं अलौकिक स्वरूप आचार्यदेवे ओळखाव्युं छे. आवा ज्ञानीओने नमस्कार हो.
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