Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष: १९ अंक: ४) तंत्री : जगजीवन बाउचंद दोशी (माह : २४८८
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चैतन्यसमुद्रमां डूबकी मारो
अहो, आनंदनो दरियो पोताना अंतरमां ऊछळे
छे तेने तो जीव जोतो नथी ने तरणा जेवा तूच्छ विकारने
ज देखे छे...संतो कहे छे के अरे जीवो! आम अंतरमां
नजर करीने आनंदना दरियाने देखो... चैतन्यना
समुद्रमां डूबकी मारो.
आनंदनो सागर अंतरमां छे तेने भूलीने अज्ञानी
तो बहारमां क्षणिक पुण्यना ठाठ देखे तेमां ज सुख
मानीने मूर्छाई जाय छे, ने जराक प्रतिकूळता देखे त्यां
दुःखमां मूर्छाई जाय छे; पण परम महिमावंत पोताना
आनंदस्वभावने देखतो नथी. ज्ञानी तो जाणे छे के हुं
पोते ज आनंदस्वभावथी भरेलो छुं. क्यांय बहारमां
मारो आनंद नथी, के मारा आनंदने माटे कोई बाह्य
पदार्थनी मारे जरूर नथी; आवुं भान होवाथी ज्ञानी
बहारमां पुण्य–पापना ठाठमां मूर्छाता नथी के मूंझाता
नथी; पण अंतरमां डूबकी मारीने आनंदने अनुभवे छे.
(२२०)