Atmadharma magazine - Ank 220
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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ATMADHARMA Regd. No. B 5669
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जीव रागभावमां तन्मय वर्ततो थको सर्वज्ञस्वभाव एवा पोताने जाणतो नथी. जुओ, पोताना आत्माने
केवो जाणे तो यथार्थ जाण्यो कहेवाय ते पण आमां बताव्युं. सर्व प्रकारे संपूर्ण एवो सर्वज्ञस्वभावी आत्मा
छे.–एवा आत्माने जाणे तो ज सम्यग्ज्ञान थयुं कहेवाय. आत्माने रागना कर्तृत्ववाळो के बंधनवाळो जाणे
तो तेमां वास्तविक आत्मानुं ज्ञान थतुं नथी. बीजी रीते कहीए तो आत्माने अबंधस्वभावी जाणे ने
बंधभावने भिन्न जाणे.–ए रीते जाणीने बंधथी जुदुं अबंधभावे ज्ञान परिणमे तो ज सम्यग्ज्ञान छे अने ते
सम्यग्ज्ञानना परिणमनमां सर्वे बंधभावोनो अभाव ज छे. जुओ, आ मोक्षमार्गमां गमन करतुं ज्ञान!
जेनाथी मोक्षमार्गमां गमन थाय–ते ज जीवने प्रयोजनरूप छे, ने तेनो ज जैनधर्ममां उपदेश छे. रागवडे कदी
मोक्षमार्गमां गमन थतुं नथी, राग तो मोक्षमार्गने रोकनार छे.
* भाई, तारो आत्मा सर्वज्ञस्वभावी छे–ए वात तने बेसे छे!
* जो सर्वज्ञस्वभाव बेठो तो रागनी रुचिने जरापण अवकाश रहेतो नथी; केमके सर्वज्ञस्वभावमां
रागनो अंश पण नथी.
* रागनो अंश पण जेनी रुचिमां सारो लागे छे तेनी ते रुचि तेने सर्वज्ञस्वभावनी रुचि थवा देती
नथी, एटले रागनी रुचिरूप जे मिथ्यात्वने छे ते ज सर्वज्ञस्वभावनी रुचिरूप सम्यक्त्त्वने प्रतिबंध करनार
छे.
* रागनी रुचिवाळो जीव रागना तणखलां आडे मोटा चैतन्य पहाडने देखतो नथी.
* ज्यां द्रष्टि खुली के हुं कोण? हुं तो सर्वज्ञस्वभावी; मारा स्वभावमां रागना एक कणने पण
अवकाश नथी; त्यां ज्ञाननुं परिणमन ज्ञानस्वभाव तरफ वळ्‌युं. जुओ, आवी अंतर्मुख प्रतीत थई त्यां
श्रद्धारूपे केवळज्ञान थयुं. अहा, ज्यां सम्यग्दर्शन थयुं त्यां पोताना आत्मानुं केवळज्ञान प्रतीतमां आवी गयुं.
तेनी रुचिनी दिशा रागथी पाछी फरीने केवळज्ञान तरफ वळी. ते कंकुवरणे पगले केवळज्ञान लेवा चाल्यो.
अने जे जीव चिदानंदस्वभावनो अनादर करीने रागनो आदर करे छे ते बंधपरिणामी जीव घोरदुःखमय
संसारमां रखडे छे. अरे, ज्ञाननो प्रेम छोडीने रागनो प्रेम कर्यो तेणे मोक्षनो मार्ग छोडीने संसारनो मार्ग
लीधो. आचार्यदेव कहे छे के हे भाई, जो तने मोक्षनो उत्साह होय, मोक्षने साधवानी लगनी होय तो समस्त
बंधभावोनी रुचि तुं छोड, ने ज्ञाननी रुचि कर; मोक्षना मार्गमां समस्त बंधभावोने निषेधवामां आव्या छे,
ने ज्ञानस्वभावनुं ज अवलंबन कराववामां आव्युं छे.
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दिगम्बर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती मुद्रक प्रकाशक: हरिलाल देवचंद शेठ, आनंद प्रिन्टींग प्रेस – भावनगर.