Atmadharma magazine - Ank 221
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : २२१
घूसी जवुं तेनुं नाम अपूर्व शांति, धर्म अने संवर छे; तेनी आ शरूआत छे.
प्रभो! तारी प्रभुता तारा स्वभावमां भरी छे, तेमां स्वसन्मुख थतां सम्यग्दर्शन एटले संवरनी
शरूआत थाय छे. चैतन्यथी बहार परद्रव्यनुं कार्य तारुं नथी, ने रागादिनी लागणी ते पण खरेखर तारा
ज्ञाननुं कार्य नथी. भगवान आत्मा, तुं आनंदनी मूर्ति! अने रागमां अटक्यो!–ते तो दुनियाना अवतारमां
रखडवाना पाया छे, ते रखडवानुं केम टळे ने संवरनी शरूआत केम थाय? ते बतावतां मंगळाचरणरूपे कहे
छे के–
मोह–रागरुष दूर करी, समिति गुप्ति व्रत पाळी,
संवरमय आत्मा कर्यो, नमुं तेह, मन धारी.
चैतन्यस्वरूपमां असावधानी ते मोह छे. भेदज्ञान वडे जेणे अंतरस्वरूपमां सावधानी करी–स्थिरता
करी अने आत्माने संवररूप कर्यो, सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र रूप परिणम्या एवा संतोने, एवा
महात्माओने, एवा मुनिओने अने एवा धर्मात्माओने नमस्कार करुं छुं.
जेम नाटकमां ३ कलाकमां आखुं जीवन बतावी दे तेम आ समयसारनाटकमां जीवनुं स्वरूप बताव्युं
छे: पहेलां अज्ञानदशा केवी हती, पछी साधकपणुं केवुं थयुं ने पछी सिद्धपदने साध्युं, ए बधानुं स्वरूप आ
समयसारमां बताव्युं छे. तेमां आ पांचमो संवर अधिकार छे: तेना मंगळाचरणमां आचार्यदेव संवरना
कारणरूप भेदज्ञान ज्योतिनो महिमा कहे छे:
अज्ञान ते बंधनुं कारण छे अने भेदज्ञान ते मोक्षनुं कारण छे. अनादि संसारथी मांडीने
अज्ञानने लीधे जे आस्रव छे, ते आस्रवने भेदज्ञानज्योतिए ऊडाडी दीधो छे ने संवरने प्रगट कर्यो छे.
अनादिसंसारमां कदी नहि थयेलुं एवुं अपूर्व भेदज्ञान थतां शुं थाय? के आनंदरसरूप आत्मा प्रगटे,
आस्रवने दूर करीने संवरनी शरूआत थाय. भूल पण आत्मानी दशामां हती, ने भूल टाळीने भेदज्ञान
थयुं ते पण आत्मानी दशा छे. आस्रव अने संवर एकबीजाथी विरुद्ध छे. अनादिथी आस्रव चाल्यो
आवतो हतो; हवे संवरे तेने जीती लीधो छे. अज्ञानरूपी छीद्र वडे आत्मामां कर्म आवता हता तेनुं
नाम आस्रव छे, अने ज्यां शुद्ध आत्मानुं भान थयुं त्यां अशुद्धता टळी ने कर्मनुं आववुं अटकी गयुं
तेनुं नाम संवर छे.
अनादिथी मोटा राजा–बादशाह पण आस्रवना पंजामां फसायेला हता, एटले आस्रवने गर्व हतो के
मारा पंजामांथी कोई छूटया नथी.–पण, हवे धर्मात्माए भेदज्ञानज्योति वडे ते आस्रवने जीती लीधो छे,
आस्रवने तेणे उडाडी दीधो छे. आवी भेदज्ञानज्योति ते महामंगळरूप छे. राग–द्वेष ते हुं नहि, हुं तो ज्ञान
छुं. भेदज्ञान वडे आस्रवनो तिरस्कार कर्यो छे, पहेलां अज्ञानदशामां ते रागद्वेषनो आदर करतो, ने हवे
ज्ञानस्वभावना आदर वडे ते पुण्य–पापनो आदर छूटी गयो, एटले आस्रव दूर थयो ने संवरनी शरूआत
थई. आवो संवर ते अपूर्व छे.
जे संवर प्रगट्यो ते सदाय विजयवंत छे. चैतन्यस्वभावनो अनुभव करीने आस्रवने दूर कर्यो ते
कर्यो. आत्मानी जे ज्ञान–आनंददशा प्रगटी ते सादि–अनंत जयवंत वर्ते छे. जे भेदज्ञानज्योति प्रगटी तेना
विकासने कोई रोकी शके नहि, अप्रतिहतभावे ते केवळज्ञान लेशे. ते भेदज्ञानज्योति सदाय विजयवंत छे.
आ रीते मांगळिकना माणेकस्थंभ रोप्या.
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