घूसी जवुं तेनुं नाम अपूर्व शांति, धर्म अने संवर छे; तेनी आ शरूआत छे.
ज्ञाननुं कार्य नथी. भगवान आत्मा, तुं आनंदनी मूर्ति! अने रागमां अटक्यो!–ते तो दुनियाना अवतारमां
रखडवाना पाया छे, ते रखडवानुं केम टळे ने संवरनी शरूआत केम थाय? ते बतावतां मंगळाचरणरूपे कहे
छे के–
संवरमय आत्मा कर्यो, नमुं तेह, मन धारी.
महात्माओने, एवा मुनिओने अने एवा धर्मात्माओने नमस्कार करुं छुं.
समयसारमां बताव्युं छे. तेमां आ पांचमो संवर अधिकार छे: तेना मंगळाचरणमां आचार्यदेव संवरना
कारणरूप भेदज्ञान ज्योतिनो महिमा कहे छे:
अनादिसंसारमां कदी नहि थयेलुं एवुं अपूर्व भेदज्ञान थतां शुं थाय? के आनंदरसरूप आत्मा प्रगटे,
आस्रवने दूर करीने संवरनी शरूआत थाय. भूल पण आत्मानी दशामां हती, ने भूल टाळीने भेदज्ञान
थयुं ते पण आत्मानी दशा छे. आस्रव अने संवर एकबीजाथी विरुद्ध छे. अनादिथी आस्रव चाल्यो
आवतो हतो; हवे संवरे तेने जीती लीधो छे. अज्ञानरूपी छीद्र वडे आत्मामां कर्म आवता हता तेनुं
नाम आस्रव छे, अने ज्यां शुद्ध आत्मानुं भान थयुं त्यां अशुद्धता टळी ने कर्मनुं आववुं अटकी गयुं
तेनुं नाम संवर छे.
आस्रवने तेणे उडाडी दीधो छे. आवी भेदज्ञानज्योति ते महामंगळरूप छे. राग–द्वेष ते हुं नहि, हुं तो ज्ञान
छुं. भेदज्ञान वडे आस्रवनो तिरस्कार कर्यो छे, पहेलां अज्ञानदशामां ते रागद्वेषनो आदर करतो, ने हवे
ज्ञानस्वभावना आदर वडे ते पुण्य–पापनो आदर छूटी गयो, एटले आस्रव दूर थयो ने संवरनी शरूआत
थई. आवो संवर ते अपूर्व छे.
विकासने कोई रोकी शके नहि, अप्रतिहतभावे ते केवळज्ञान लेशे. ते भेदज्ञानज्योति सदाय विजयवंत छे.
आ रीते मांगळिकना माणेकस्थंभ रोप्या.