फागण: २४८८ : १७ :
(माह वद १४ना मंगल प्रवचनमांथी)
जेम नवीन मेघनी वर्षा थतां पृथ्वी प्रफूल्ल बने
तेम गुरु गगनथी नवीन श्रुतवर्षा थतां श्रुततरस्या
जिज्ञासु जीवोना हैया ए श्रुतामृत झीलीने
आनंदविभोर बन्या. प्रवचनोनी शरूआत संवर
अधिकारथी थई हती. शरूमां गुरुदेव कहे: धर्मनी
शरूआत संवरथी थाय छे; आपणे प्रवचनमां पण आजे
‘संवर’ नी शरूआत थाय छे.
आ समयसारशास्त्र छे. ‘समयसार’ शब्द वाचक छे ने ‘शुद्धआत्मा’ तेनुं वाच्य छे. आ
समयसारशास्त्र शुद्धआत्मानुं स्वरूप देखाडे छे. आ देह तो जड तत्त्व छे, तेनाथी भिन्न, तेने अने पोताने
जाणनार एक ज्ञानतत्त्व अंदर अरूपी छे, ते सत्चित्आनंदस्वरूप छे; अनादिअनंत ते सत् छे; अतीन्द्रिय
ज्ञान अने आनंद तेनुं स्वरूप छे, पण जीवे पोताना आवा स्वभावनी ओळखाण पूर्वे कदी करी नथी.
आत्मानी ओळखाण करवी ते अपूर्व धर्मनी शरूआत छे ने तेनुं नाम संवर छे.
जेम लींडीपीपरना प्रत्येक दाणामां ६४ पहोरी तीखास थवानी ताकात छे, ते ज प्रगटे छे; तेम प्रत्येक
आत्मामां सर्वज्ञ थवानी ताकात पडी छे. ते सर्वज्ञस्वभावनुं भान करीने, तेमां लीनतावडे जेमणे सर्वज्ञता
प्रगट करी, एवा भगवान सर्वज्ञदेवनी वाणीमां आत्मानुं शुं स्वरूप कह्युं छे तेनी आ वात छे. सर्वज्ञता अने
पूर्णानंदनी ताकात चैतन्यमां भरी छे. चैतन्यतत्त्व आनंदरसथी पूर्ण भरपूर छे. वर्तमान अवस्थामां जे
रागद्वेषादि दोष देखाय छे ते क्षणिक छे, ते त्रिकाळीस्वभावमां नथी. त्रिकाळीस्वभावना आश्रये ते दोष टळी
जाय छे ने निर्दोषता प्रगटे छे. जे दोष टाळवा मांगे छे ने निर्दोषता प्रगट करवा मांगे छे ते पोते स्वभावथी
दोषरूप होय नहि. निर्दोषता स्वभावमां न होय तो निर्दोषता आवशे क््यांथी माटे आत्मा निर्दोष ज्ञान ने
आनंदस्वरूप छे.
हवे आवो ज्ञानस्वरूप आत्मा शुं कार्य करे तो तेने धर्म थाय? तेनी वात आ संवरअधिकारमां छे.
संवर एटले भेदज्ञान, अनंतकाळमां स्व शुं ने पर शुं, ज्ञान शुं ने राग शुं, तेनुं यथार्थ भेदज्ञान जीवे क्षण
पण कर्युं नथी. रागद्वेषनी शुभ अशुभ लागणी ऊठे छे ते मारुं कार्य ने हुं तेनो कर्ता–एवी ज्यां सुधी बुद्धि
रहे त्यां सुधी संसार परिभ्रमण टळे नहि. जेम काचो चणो तूरो लागे छे पण तेने सेकतां तेनो मूळ मीठो
स्वाद प्रगटे छे, ने पछी ते ऊगतो नथी, तेम चैतन्यमां क्रोधादि कषायोनी जे तूराश छे ते तेनो खरो स्वाद
नथी, सम्यक्–श्रद्धा–ज्ञान–चारित्र वडे तेनो मूळ मीठो अतीन्द्रिय चैतन्य स्वाद अनुभवमां आवे छे. एक
सेकंड पण जे भेदज्ञान प्रगट करे तेने अपूर्व शांतिनो स्वाद आवे; तेने टकोरानी शरूआत थई जाय.
सुख बहारमां नथी, दुःख पण बहारमां नथी, सुख अंतरमां आत्मानो स्वभाव छे, ने तेनी विकृति
ते दुःख छे. चैतन्यनो मूळस्वभाव दुःखरूप नथी. आवा स्वभावने जाणीने अंर्तद्रष्टि वडे निर्विकल्प
चिदानंदस्वरूपमां