Atmadharma magazine - Ank 221
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : आत्मधर्म : २२१
जंगलमां वसता संतोए चैतन्यस्वभावना अनुभवमां झूलता झूलता अलौकिक काम कर्या छे...
परमात्मा एमनी द्रष्टिमां तरवरे छे; रागादि परभावो साथेनी संधि–एकता तोडीने अंतरमां परम–आत्मा
साथे गोष्ठी बांधी छे. परमात्मस्वभावमां पेठा त्यां बंधन तो दूर दूर चाल्युं गयुं. परमात्मस्वभावमां कर्मनो
प्रवेश नथी. माटे शुद्धनयवडे जे परमात्मस्वभावमां पेसीने ऊंडो ऊतर्यो एवा ज्ञानीने कर्मनुं बंधन थतुं
नथी.
आचार्यदेव महा सिद्धांत कहे छे के–
इदमेवात्र तात्पर्यं हेयः शुद्धनयो न हि।
नास्ति बंधस्तदत्यागात् तत्त्यागात्बंध एव हि।। १२२।।
जुओ, आ सर्व सिद्धांतनो सार! आ शास्त्रनुं तात्पर्य! आ श्लोक पं. बनारसीदासजी
समयसारनाटकमां कहे छे के–
यह निचोड यह ग्रंथको, य है परमरसपोष;
शुद्धनय त्यागे बंध है, ग्रह शुद्धनय मोक्ष.
शुद्धनयना ग्रहणथी मोक्ष छे, शुद्धनयना त्यागथी बंधन छे, आ समयसारनो नीचोड छे, अने आ ज
परम शांतरसनुं पोषण करनार छे. अहा, संतोए मार्ग सुगम करी दीधो छे.
साधक जीवोए सदाय शुद्धात्मानो ज आश्रय करवा जेवो छे, शुद्धात्माना आश्रये ज साधकपणुं
छे. शुद्धात्मानो आश्रय करनारो एवो शुद्धनय ज ग्रहण करवा योग्य छे. अने रागादिनो आश्रय
करनारो एवो अशुद्धनय–व्यवहारनय ते ग्रहण करवा योग्य नथी. ज्यां स्वभावनो आश्रय थयो त्यां
मोक्ष छे ने ज्यां विभावनो आश्रय थयो त्यां बंधन छे.–आ महासिद्धांत जाणीने मुमुक्षुए शुद्धनयवडे
शुद्धात्मामां परिणमवुं–ते ज सर्व शास्त्रोनुं तात्पर्य छे. जेणे स्वभावनो आश्रय करीने शुद्धअनुभूति
प्रगट करी तेणे परमशांत अतीन्द्रिय चैतन्य आनंदरस चाख्यो अने बधाय शास्त्रोनो नीचोड तेणे
प्राप्त करी लीधो.
अहो, अमृतचंद्रआचार्यदेवे अद्भुत कळशो रच्या छे. अध्यात्मकवि, ने अध्यात्मद्रष्टि,
अध्यात्मआचरण ने अध्यात्मना सूर्य!! जाणे अध्यात्मनो सूरज ऊग्यो. तेमना कळशमां
अध्यात्मरसनी धारा टपके छे. १२३मा कळशमां आचार्यदेव कहे छे के अहो, शुद्धात्माने अवलंबनारो
आ शुद्धनय धीर छे अने उदार छे; शुद्धनयनो महिमा अत्यंत उदार छे, शुद्धनय एवो बळवान छे के
ज्ञानमां स्थिर थईने कर्मोने मूळमांथी ऊखेडी नांखे छे–आवो महिमावंत शुद्धनय छे ते पवित्र
धर्मात्माओए कदी पण छोडवा योग्य नथी. जुओ, आ पवित्र धर्मात्माओनुं लक्षण! पवित्र धर्मात्मा
शुद्धनयने कदी छोडता नथी. जेओ शुद्धनयनुं अवलंबन छोडीने, रागना आश्रयनी बुद्धि करे छे ते जीव
पवित्र नथी, ते जीव धर्मी नथी, ते जीव मलिनचित्तवाळो छे. सम्यग्द्रष्टिनुं चित्त तो शुद्धनयथी ओपतुं–
दीपतुं छे, ते ज खरुं कार्य करनारो छे. बहारमां देह स्त्रीनो हो के पुरुषनो, पण जेणे अंतरमां शुद्धनय
वडे आत्मानी निर्मळ अनुभूति प्रगट करी छे ते कृतकृत्य छे, ते महान छे. एवा पवित्र धर्मात्मामां
पोताना ज्ञानकिरणोने ज्ञान स्वभावमां ज समेटीने, चैतन्यना अचळ शांत पूर्ण तेज ने देखे छे,
परमआनंदरसने अनुभवे छे ने ज्ञानमां लीनतावडे अल्पकाळमां केवळज्ञान प्रगट करे छे. धर्मात्मा
साधक थईने शुद्धनयवडे पोताना शुद्ध आत्माने ज साध्य बनावे छे, शुद्धनय ज तेनुं साधन छे; तेना
साध्य, साधक ने साधन त्रणे निर्विकल्पपणे पोतामां ज समाय छे, वच्चे बीजुं कोई साधक नथी.
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