Atmadharma magazine - Ank 221
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष: १९ अंक: प) तंत्री : जगजीवन बाउचंद दोशी (फागण : २४८८
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हे जिन, मेरी एसी बुद्धि कीजे....
भगवान जिनेन्द्र वीतरागदेव प्रत्ये जेने परम बहुमान जाग्युं छे, वीतरागतानो जे
उपासक छे, पोताना परिणाममां समतारसना सिंचनवडे रागद्वेषना दावानळने जे बुझाववा
मांगे छे एवो भक्त, जिन–प्रार्थनाने बहाने वीतरागतानी भावना भावे छे:
हे जिन! मेरी ऐसी बुद्धि कीजे.....हे जिन...
रागद्वेष दावानलतें बचि, समतारसमें भींजे...
..... हे जिन! मेरी ऐसी बुद्धि कीजे...
हे भगवान! मारी बुद्धि एवी अंतर्मुख हो के राग–द्वेषरूपी दावानळथी रक्षा थईने मारो
आत्मा समतारसमां तरबोळ थई जाय....चैतन्यनी परमशांतिना वेदनमां बुद्धि एवी लागे के
क््यांय राग–द्वेषनो अवकाश ज न रहे.
वळी वीतरागता माटे भेदज्ञाननी तीव्रभावनाथी उपासक प्रार्थना करे छे के:
परमें त्याग अपनपो, निजमें लाग न कबहुं छीजे....
..... हे जिन! मेरी ऐसी बुद्धि कीजे...
हे जिनेश! मारी परिणति एवी हो के परमां पोतापणुं छोडीने, निज–आत्मामां ज लागे
अने पछी तेमां ज स्थिर रहे ने कदी तेनाथी छूटे नहीं.
अंतर्मुख थतां मारी परिणति केवी थाय?–के
कर्म कर्मफल मांहीं न राचे, ज्ञानसुधारस पीजे....
..... हे जिन! मेरी ऐसी बुद्धि कीजे...
सदाय ज्ञानचेतनानी ज भावना भावतां स्तुतिकार कहे छे: हे जिन! कर्ममां के कर्मफळमां
मारी बुद्धि जरा पण न राचे, ने चैतन्यमां लीनतावडे निरंतर ज्ञानसुधारसने ज पीधा करे...
एवी मारी बुद्धि करो.
हे भगवान! मारे साध्य एवी जे वीतरागता–ते आपने पूर्ण प्रगट छे तेथी आप मारा
ध्येयपणे छो–एम वर्णवतां अंतमां कवि दोलतरामजी कहे छे के–
मुज कारज के तुम कारण वर अरज ‘दौल’ की लीजे....
..... हे जिन! मेरी ऐसी बुद्धि कीजे...
भेदज्ञानपूर्वक निजात्मामां लीनता, वीतरागता अने ज्ञानचेतना एवुं जे मारुं कर्तव्य
तेना उत्तम कारणपणे हे जिन! आप छो...केमके आपने ध्येय बनावतां मारा भेदज्ञान वगेरे
कार्यनी सिद्धि थाय छे. माटे हे भगवान! मारी आ प्रकारनी निर्मळबुद्धि करो.