: १८ : आत्मधर्म : २२प
अशुद्धिनो व्यय अने शुद्धिनी वृद्धिरूप निर्जरा थाय छे.
संयोगथी दुःख नथी, रोगादि प्रतिकूळताथी दुःख छे एम नथी. दुःख तो सुखगुणनी उंधी दशा
छे, तेनो कर्ता जीव छे. परथी भिन्न चैतन्यना भान विना मुनि थयो तो पण तेनो आत्मा अज्ञानथी
दुःखी छे. रागथी, पुण्यथी, शरीरनी क्रियाथी लाभ माने तेने भेदज्ञान नथी. तेने शुद्धज्ञान रहित
अंधबुद्धि कह्यो छे. जडकर्म रागादि करावे छे, कर्ममां मांडयुं होय तो धर्म थाय–एम माननार विवेक
रहित छे, तेने आत्मानुं भान नथी.
आचार्ये ताडपत्र उपर शास्त्रो लख्या. एम व्यवहारमां कथन आवे, पण खरेखर एमणे
ताडपत्रनी अने अक्षरो लखवानी क्रिया करी नथी. आवुं शास्त्र लखवुं एवी ईच्छा आवेली पण तेओ
ईच्छाना कर्ता नथी–स्वामी नथी, पण व्यवहारे तेना ज्ञाता छे!
आत्माने रागनो अने शरीरनी क्रियानो कर्ता माने ते कदी नग्न मुनिवेश धारे तेथी शुं?
अंतरमां त्रिकाळी ज्ञायकस्वभावना आलंबन वडे मिथ्यात्व अने रागादिनी लागणीरूपी लूगडां काढीने
निर्ग्रथपद धारण करे ते साचा साधु कहेवाय.
कोई कहे छे के अत्यारे निश्चयधर्म न होय, पुण्यनी क्रिया करो, व्रतादि करो, पुण्यथी स्वर्ग मळशे.
पछी परंपराए निश्चय धर्म थशे; पण कोई काळे पुण्यथी आत्मा न मळे. अज्ञानीने तेना मानेला
धर्मना फळमां स्वर्गनो प्रेम छे. अने जेने अनुकूळतानो प्रेम छे. तेने तेटलो ज ते ज समये
प्रतिकूळतानो तीव्र द्वेष छे.
ज्ञानी तो माने छे के मारो चैतन्य स्वभाव कोईथी बगाडयो बगडतो नथी अने बीजा वडे
सुधार्यो सुधरे एम नथी.
प्रश्न:– ज्ञानी निःशंक–निर्भय छे. तो सिंह, सर्प, अग्नि वगेरेथी डरीने भागे के नहि?
उत्तर:– शरीरनुं भागवुं–न भागवुं पोताने आधीन नथी. ज्ञानीने चारित्रमां नबळाई होय तो
ईच्छा थाय, भयनो विकल्प आवे, भागवुं देखाय अने अज्ञानी न पण भागे. ज्ञानी मुनिदशामां होय
तो भय न करतां, स्थिरता वधारे पण नीचली दशा होय त्यां चारित्रनी नबळाई वश भयथी भागे
छतां अंदरमां नित्यज्ञायक छुं–एवां श्रद्धा–ज्ञानमां स्थिर छे, निर्भय छे. तेथी अज्ञान दशामां भयने
लीधे जे बंध थतो हतो ते कदी थतो नथी, पण निरंतर निर्जरा (शुद्धिनी वृद्धि) थाय छे.
भेदविज्ञाननुं बळ
निजमहिम रतानां भेदविज्ञानशक्त्या भवति नियतमेषां शुद्धतत्त्वोपलंभः।
अचलितमखिलान्यद्रव्य दूरेस्थितानां भवति सति च तस्मिन्नक्षयः कर्ममोक्षः।।१२८।।
अर्थ:– जेओ भेदविज्ञाननी शक्ति वडे निज
(स्वरूपना) महिमामां लीन रहे छे तेमने नियमथी
(चोक्कस) शुद्ध तत्त्वनी उपलब्धि (प्राप्ति) थाय छे; शुद्ध
तत्त्वनी उपलब्धि थतां, अचलितपणे समस्त अन्य
द्रव्योथी दूर वर्तता एवा तेमने अक्षय कर्ममोक्ष थाय छे
(अर्थात् फरीने कदी कर्मबंध न थाय एवो कर्मथी छूटकारो
थाय छे.)