Atmadharma magazine - Ank 225
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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अशाड : २४८८ : १७ :
कहे छे. के “नमो लोए सव्वसाहूणं.” हे संत! तमारा चरणमां मारा नमस्कार हो!
अढीद्वीपमां जेटला निर्ग्रंथ संत मुनि होय ते बधाय वारंवार छठ्ठा–सातमे गुणस्थाने झूलता होय छे.
तेओ बधा मोक्षतत्त्व छे भले बे घडी पहेलां साधुपद प्रगट कर्युं होय ते बधाने मारा नमस्कार छे. जेओ
मिथ्या अभिप्रायरूपी शल्यवान छे, तेओ मोक्षमार्गना विरोधना फळरूपे हळवे हळवे अथवा शीघ्र निगोद
(एकेन्द्रिय) मां जाय छे. निगोदमां जनार जीवने बीजा जोनारा तो जीव नहि माने पण हुं जीव छुं एम
पोते पण नहि माने.
पुण्यपापरूपभाव अने विपरीत अभिप्राय ते आस्रव तत्त्व छे. तेने अहितकारी न मानतां जे
हितकारी माने छे ते–संसारतत्त्व छे. नव ग्रैवेयक जनार ऊंचा शुभभावमां टकेलो द्रव्यलिंगी साधु अने
सामान्य मिथ्याद्रष्टि बधा मिथ्यात्व अपेक्षाए सरखा ज छे. तेमां आत्महितनो आंतरो पाडवा जेवो कांई
तफावत नथी, पुण्यपापनो फेर ते संसारखातामां छे.
परथी निरपेक्ष स्वानुभवथी निर्मळ परिणाम थाय छे. ते शुद्ध चैतन्यस्वरूप स्वलोक–स्वज्ञेयनुं
अवलोकन करनार मुनि कहेवाय छे.
अखंडज्ञान शांतिमात्र लोक ते मारो लोक छे. जे भाववडे तीर्थंकर नामकर्म बंधाय ते मारो लोक नथी.
व्यवहार तेनी भूमिकानुसार होय छे. पूजा, भक्ति, दया, दान, प्रभावना आदिनो शुभभाव तेना काळे आवे
छे खरो पण धर्मीजीव तेने स्वज्ञेय–स्वलोक तरीके अवलोकतो नथी. पण परज्ञेयपणे देखे छे. आ लोकमां
अथवा परलोकमां मारुं शुं थशे एवी शंका धर्मीने थती ज नथी. नित्यस्वभाव उपर द्रष्टि छे अने स्वरूप
सन्मुख निःशंक, अखंड धारावाही रुचि छे ते अनुसार पोतामां परिणमन थाय छे. तेथी ते निर्मळ
भेदज्ञाननी द्रष्टिथी हुं चित्स्वरूप ज्ञानघन छुं–एम अवलोकन करे छे अने व्यवहारना अनेक भेद ते ते काळे
जाणेला प्रयोजनवान छे एम ज्ञानी माने छे.
संध्याना क्षणिक रंग खीले–विणसे तेम संयोगी चीज अने संयोगीभाव (पुण्यपापना भाव) पण
क्षणिक छे, ते आवे–जाय छे. ज्ञानी ते सर्वनो ज्ञाताद्रष्टा साक्षी छे. भूमिका अनुसार व्यवहार आवे छे पण ते
तेने अनुसरतो नथी.
शरीरादि संयोग पाणीना परपोटानी जेम शीघ्र नाशवंत छे. शरीर सारुं (नीरोग) रहे के न रहे
तेनी साथे मारे संबंध नथी. भगवान आत्मा नित्य ज्ञानस्वरूप छे. संकल्पविकल्प पण हो, ते तेना काळे
आवे छे हुं एवो ने एवडो नथी. मारे अने परद्रव्यने कांई संबंध नथी.
जीव अने अजीव बेउना स्वभाव सदाय भिन्नभिन्न छे. कोई कोईनुं स्वामी नथी, कर्ता नथी.
शुभराग पुण्य छे तेनाथी पण धर्म नथी. धर्म तो आत्मानो अविकारी स्वभाव छे. एम प्रथम निर्णय करी,
स्वभाव तरफ द्रष्टि करे तो साचुं समाधान थाय. हुं कोण छुं, हुं शुं करी शकुं, स्वभाव–परभाव, हित–अहित
शुं एनो निर्धार कर्या विना साधु अथवा धर्मी नाम धारे तो तेथी कांई धर्मी थवातुं नथी, कोळीना बाळकनुं
नाम “सयाजीराव” पाडे तेथी ते राजा न थई जाय.
कोई सम्मेदशिखरजी जाय, तीर्थयात्रा करे, दान–उपवासादि करे तेथी धर्मी नथी केमके धर्मनो संबंध
तेनी साथे नथी. धर्मनो संबंधनित्य चैतन्यस्वभाव साथे छे. पुण्यना संयोग अने शुभराग छे माटे ते धर्मी
छे एम नथी. व्यवहाररत्नत्रय आदिना शुभभाव थाय ते आस्रव छे, बंधनुं कारण छे एम ज्ञानी माने छे.
पण तेनो आश्रय करवाथी धर्म थशे एम ज्ञानी मानतो नथी. कोई काळे, कोई व्यक्तिने, कोई अपवादथी
शुभरागना कारणे धर्म थाय एवुं मोक्षमार्गमां नथी. जे कोई राग ऊपजे तेने ज्ञानी उपाधि माने छे, ते
करवा योग्य छे, एम ते मानतो नथी.
धर्मीजीव तो सर्व विरुद्धभावनो निषेध करी सदाय पोताने चित्स्वरूपे अवलोके छे, त्रणे काळ
मिथ्यात्वरागादिथी रहित, शरीरथी भिन्न पोताने ज्ञायकपणे माने छे, जाणे छे, अने अनुभवे छे. तेनाथी
तेने