Atmadharma magazine - Ank 226
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : आत्मधर्म : २२६
*धर्मीनो आत्मतरफ वळेलो भाव पण जो कर्मबंधनुं निमित्त थया करे तो तो कर्म छूटे क््यारे? ने
आत्मा आत्मारूप थाय क््यारे? स्वभाव तरफ वळतां कर्मनुं निमित्तपणुं छूटी जाय छे.
आत्मानो स्वभाव एवो नथी के कर्मनो निमित्त थाय. जो स्वभावथी आत्मा कर्मनो निमित्त होय तो
तो जगतमां ज्यां ज्यां कर्म वगेरे के घडो–वस्त्र–रथ–कुंडळ वगेरे कार्य थाय त्यां त्यां तेनी सन्मुख रहेवुं पडे,
एटले स्वसन्मुख थवानो अवसर ज रहे नहि. परना कार्यमां निमित्तपणे उपस्थित थया करे एटले पर
सन्मुख ज रह्या करे ने स्वसन्मुखता तो थाय ज नहि, परप्रकाशपणुं ज एकांत रह्या करे ने स्वप्रकाशन तो
थाय नहि, एटले सम्यग्ज्ञान थाय नहि. माटे स्वभावथी आत्मा परना कार्यनो निमित्त छे एवी जेनी द्रष्टि
छे ते मिथ्याद्रष्टि छे. मिथ्यात्वभावे विकारनो कर्ता थईने ते कर्मना बंधनमां निमित्त थाय छे; पण ते
मिथ्यात्वभावने ‘आत्मा’ कहेता नथी. ज्ञानस्वभावे परिणमतो आत्मा ते ज खरेखर आत्मा छे, ने ते
आत्मा कर्मबंधननो के परनां कार्यनो निमित्त कर्ता पण नथी.
मारो आत्मा निमित्तथी तो परनो–कर्मनो कर्ता छे ने?–आवी जेनी द्रष्टि छे तेनी द्रष्टि विकार
उपर छे, तेनी द्रष्टि आत्माना स्वभाव उपर नथी. तेने तो हजी विकार करवो छे ने कर्मनुं निमित्त थवुं
छे, पण स्व–पर प्रकाशक ज्ञातापणे नथी रहेवुं. अज्ञानी परनो निमित्त थवा जाय छे तेमां
स्वसन्मुखज्ञानने चूकी जाय छे ने विकारना कर्तृत्वमां अटकी जाय छे. ज्ञानी तो “मारो आत्मा
निमित्तपणे पण परनो कर्ता नथी” एम जाणीने उपयोगने परथी पाछो वाळी स्वभावमां ज उपयोगने
वाळे छे ए रीते स्वभाव तरफ वळेलो स्व–परप्रकाशक उपयोग पोते तो परना कार्यनो निमित्तकर्ता
नथी थतो, परंतु उलटुं परज्ञेयोने ज्ञातापणे जाणतो थको तेने पोताना ज्ञाननुं निमित्त बनावे छे.
जुओ तो खरा, द्रष्टि बदली त्यां बधुं बदली गयुं, पहेलां पोते अज्ञानभावे परनो निमित्त थतो,
तेने बदले हवे परने पोताना ज्ञाननुं निमित्त बनावे छे. स्व–परप्रकाशक सामर्थ्य वडे परने ज्ञेयपणे
ज जाणतो थको तेने पोताना ज्ञाननुं निमित्त बनावे छे.
*कुंभार घडानो तन्मयपणे तो कर्ता नथी; पण निमित्तपणे तो कर्ता छे ने?–एना उत्तरमां त्रण वात
छे.
*तेनो त्रिकाळी आत्मा तो घडानो निमित्तपणे पण कर्ता नथी. हवे पर्यायमां बे प्रकार.
* जो त्यां कुंभारनो आत्मा सम्यग्द्रष्टि होय तो ते सम्यग्द्रष्टिनी निर्मळ परिणति तो चैतन्य साथे ज
अभेद थई छे तेथी तेनी पर्याय पण घडानी निमित्तकर्ता नथी. योग अने कषायभावो तो स्वभावथी
भिन्नपणे होवाथी ते काळे ज्ञानी तेनो अकर्ता छे.
* अने ते कुंभार जो मिथ्याद्रष्टि होय तो ते अज्ञानभावे योग अने कषायनो कर्ता थाय छे (योग
अने उपयोग एम कह्युं छे तेमां उपयोग ते कषायरूप व्यापार छे), एवा योग अने उपयोग ते कर्म वगेरेना
(निमित्त छे. पण ए निमित्तपणानुं कर्तृत्व तो अज्ञानभावमां छे, ने ते अज्ञानभावने तो ‘आत्मा’ ज
कहेता नथी. ज्ञानस्वभावी आत्मा तो अकर्ता ज छे.
* अहा, योग अने मलिन उपयोगनुं कर्तापणुं पण ज्ञानीनी द्रष्टिमां नथी. जे निर्मळपर्याय प्रगटी
तेमां पण ते मलिनतानुं कर्तृत्व नथी; तो पछी विकार वगर आत्मा घट–पट के कर्मनो निमित्तकर्ता केम होय?
कर्मनुं निमित्त तो योग अने कषाय छे, तेथी निमित्तकर्तापणुं तेने ज लागु पडे छे के जे योग अने कषायनो
कर्ता थईने परिणमे छे.
* कर्मनी पर्याय थई ते तेनो निश्चय, अने हुं तेनो निमित्तपणे व्यवहार कर्ता–जुओ, आ अज्ञानीनी
ऊंधी द्रष्टि! तेनी पर्यायमां विकारनुं कर्तृत्व कदी छूटतुं नथी.
* ज्ञानी तो जाणे छे के हुं स्व–पर प्रकाशक ज्ञाता, ने जगतना पदार्थो ज्ञेय तरीके मारा निमित्त! मारी
स्व–पर प्रकाशक शक्ति खीली ते निश्चय, अने परज्ञेय निमित्तरूप ते व्यवहार.