श्रावण : २४८८ : १७ :
ज्ञानी ज्ञानना
ज कर्ता छे
ज्ञानी अबंधपरिणामी छे; अबंधपरिणामी एवा ज्ञानीना
ज्ञानमयपरिणाम कर्म वगेरेनां निमित्त पणनथी–एम
समजावीने ज्ञानीनी अलौकिक दशानुं स्वरूप अहीं ओळखाव्युं छे.
(समयसार गाथा १०० तथा १०१ उपर पू. गुरुदेवना प्रवचनोमांथी)
आ कर्ताकर्म अधिकारमां आत्मानुं परद्रव्य अने परभावोनुं अकर्तापणुं बतावीने एकलो
ज्ञायकस्वभाव बतावे छे; ते ज्ञानस्वभावनी सन्मुखता वडे सम्यग्दर्शनादि निर्मळभावोनी उत्पत्ति थाय
छे, तेना धर्मी कर्ता छे, अने ते ज धर्मात्मानुं कार्य छे.
धर्मी जीव पोताना निर्मळभावोमां व्यापे छे, एटले ते निर्मळभाव साथे तो व्याप्य–व्यापकभावे
कर्तापणुं छे; अज्ञानी मलिनभावो करीने तेनो कर्ता थाय छे. परंतु परद्रव्यनी पर्यायमां तो कोई आत्मा
व्यापतो नथी, एटले परनुं कर्तापणुं तो छे ज नहि.
हवे कोई पूछे के आत्मा परमां व्यापक थईने तेने भले न करे, परंतु निमित्तपणे तो परनो कर्ता
छे ने? निमित्त–नैमित्तिक भावथी तो कर्ताकर्मपणुं छे ने?–तो तेनो उत्तर आपतां आचार्यदेव १०० मी
गाथामां कहे छे के भाई, ज्ञानस्वभावी आत्मा खरेखर निमित्तपणे पण परनो कर्ता नथी. विकारने
खरेखर आत्मा कहेता नथी, निर्मळपर्यायमां अभेद थयो तेने ज आत्मा कहीए छीए, ने एवो
‘आत्मा’ परसन्मुख नहि परिणमतो थको कर्म वगेरे परनो निमित्त पण थतो नथी. आ गाथामां
अद्भुत अलौकिक वात छे.
* प्रथम, उपादानपणे तो आत्मा आठ धर्म वगेरे परद्रव्यनी पर्यायनो कर्ता नथी.
* बीजुं, आत्मा जो स्वभावथी कर्म वगेरे परनो निमित्त होय तो परनुं निमित्तपणुं त्रणे काळ
रह्या ज करे, एटले सदाय परनी सन्मुखता रह्या ज करे, ने स्वभावमां अभेद थवानो प्रसंग न रहे.
* योग अने विकारी उपयोग ते कर्मना निमित्त छे, परंतु ज्ञानी धर्मात्मा तो ते योग अने
विकारी उपयोगना पण कर्ता नथी, तो पछी ते कर्मना निमित्तकर्त्ता केम होय? निर्मळ उपादानमांथी
विकारनुं कर्त्तापणुं छूटी गयुं छे, तेथी विकारना निमित्ते बंधाता कर्मनुं निमित्तकर्तापणुं पण ते
धर्मात्माने छूटी गयुं छे.
* अज्ञानीना क्षणिक योग अने विकारी उपयोग ज कर्मना निमित्त छे, पण ते विकारने खरेखर
आत्मा कहेता नथी.