क्षयथी उत्पन्न थाय छे; परम आनंदरूप छे; अनुपम छे; अने सौथी श्रेष्ठ छे.
पोतपोताना कर्मबंधथी मळेला विषयोमां लीनता अनुसार थया करे छे. एवुं श्री अर्हंत भगवाने कह्युं छे.
आवे छे. पुन्यकर्मोनुं उत्कृष्ट फळ सर्वार्थसिद्धिमां अने पापकर्मोनुं उत्कृष्ट फळ सातमी नरकनां नारकीओने
जाणवुं जोईए. पुन्यनुं उत्कृष्ट फळ परिणामोने शांत राखवाथी, ईन्द्रियोने दमन करवाथी अने निर्दोष
चारित्रपालन करवाथी पुण्यात्मा जीवोने प्राप्त थाय छे. अने पापनुं उत्कृष्टफळ परिणामोमां शांति नहीं
राखवाथी, ईन्द्रियोनुं दमन नहीं करवाथी तथा निर्दोष चारित्र पालन नही करवाथी पापी जीवोने प्राप्त थाय
छे. जेवी रीते घणां ज अल्पकाळमां जिनेन्द्र लक्ष्मी (तीर्थंकरपद) प्राप्त करवावाळा आ वज्रनाभीए शम,
दम अने चारित्रनी विशुद्धि माटे आळस रहित थई श्री जिनेन्द्रदेवनी कल्याण करवावाळी आज्ञानुं चिंतवन
कर्युं हतुं ए ज प्रकारे अनुपम सुखना अभिलाषी दुःखना भारने छोडवानी ईच्छा करवावाळा बुद्धिमान
विद्वान पुरुषोए पण निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान अने शान्तिपूर्वक शम, दम अने यमनी विशुद्धिने माटे
आळसरहित थई कल्याणकारी श्री जिनेन्द्रदेवनी आज्ञानुं चिंतवन करवुं जोईए. अने निरन्तर सर्वज्ञ
वीतराग कथित स्वतंत्रता, यथार्थता अने वीतरागतानुं ग्रहण करवामां सावधान रहेवुं जोईए.
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुतः एतेभ्यो भवति बन्धः।। २१३।।
थवुं ते सम्यग्चारित्र छे. ए त्रणे आत्मानुं ज स्वरूप छे, तेनाथी बंधन केम थाय?
न ज थाय.
(१) देवशास्त्रगुरु तथा साततत्त्वोनुं श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन छे अने
प्रवृत्तिने हठावीने शुभ क्रियाओमां प्रवृत्ति करवी ते व्यवहार सम्यग्चारित्र छे, ए तो
थयां व्यवहार रत्नत्रय,
निश्चय रत्नत्रय छे. ते जीवोने कर्मोथी छूटवानुं (मोक्षनुं) कारण छे, किन्तु कर्मोनां
बंधनुं कारण नथी.