Atmadharma magazine - Ank 226
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : आत्मधर्म : २२६
सुख बराबर पण नथी. सिद्धोनुं ते सुख फकत आत्माथी ज उत्पन्न थाय छे. बाधा रहित छे; कर्मोनां
क्षयथी उत्पन्न थाय छे; परम आनंदरूप छे; अनुपम छे; अने सौथी श्रेष्ठ छे.
जे सिद्ध परमेष्ठी बधा परिग्रहोथी रहित छे; शांत छे अने अभिलाषारहित छे, ज्यारे तेओ सुखी
मानवामां आवे छे, तो अहमिन्द्रपदमां तो सुख पोतानी मेळेज सिद्ध थाय छे.
भावार्थ:– मोक्षनुं सुख अने अहमिन्द्रनुं सुख ए बन्नेमां महा अंतर छे. तो पण श्रेष्ठता बताववा माटे
अहमिन्द्रनां सुखने मोक्षनां सुखनी समान बताव्युं छे. आ संसारमां जीवोने जे सुखदुःख थाय छे ते बन्ने
पोतपोताना कर्मबंधथी मळेला विषयोमां लीनता अनुसार थया करे छे. एवुं श्री अर्हंत भगवाने कह्युं छे.
जेवी रीते खाधेलुं एक ज अनाज मधुर अने कडवा रूपथी बे प्रकारनो रस आपे छे. (जोवामां आवे
छे) एवी रीते ए पुन्य अने पापरूपी कर्मोनो पण क्रमथी सुखदायी अने दुःखदायी विपाक (फळ) जोवामां
आवे छे. पुन्यकर्मोनुं उत्कृष्ट फळ सर्वार्थसिद्धिमां अने पापकर्मोनुं उत्कृष्ट फळ सातमी नरकनां नारकीओने
जाणवुं जोईए. पुन्यनुं उत्कृष्ट फळ परिणामोने शांत राखवाथी, ईन्द्रियोने दमन करवाथी अने निर्दोष
चारित्रपालन करवाथी पुण्यात्मा जीवोने प्राप्त थाय छे. अने पापनुं उत्कृष्टफळ परिणामोमां शांति नहीं
राखवाथी, ईन्द्रियोनुं दमन नहीं करवाथी तथा निर्दोष चारित्र पालन नही करवाथी पापी जीवोने प्राप्त थाय
छे. जेवी रीते घणां ज अल्पकाळमां जिनेन्द्र लक्ष्मी (तीर्थंकरपद) प्राप्त करवावाळा आ वज्रनाभीए शम,
दम अने चारित्रनी विशुद्धि माटे आळस रहित थई श्री जिनेन्द्रदेवनी कल्याण करवावाळी आज्ञानुं चिंतवन
कर्युं हतुं ए ज प्रकारे अनुपम सुखना अभिलाषी दुःखना भारने छोडवानी ईच्छा करवावाळा बुद्धिमान
विद्वान पुरुषोए पण निश्चय सम्यग्दर्शन–ज्ञान अने शान्तिपूर्वक शम, दम अने यमनी विशुद्धिने माटे
आळसरहित थई कल्याणकारी श्री जिनेन्द्रदेवनी आज्ञानुं चिंतवन करवुं जोईए. अने निरन्तर सर्वज्ञ
वीतराग कथित स्वतंत्रता, यथार्थता अने वीतरागतानुं ग्रहण करवामां सावधान रहेवुं जोईए.
मोक्षनुं कारण.
श्री अमृतचंद्राचार्यकृत पुरुषार्थ सिद्धि उपाय नामे श्रावकाचारमां कह्युं छे के–
दर्शन नमात्मविनिश्वितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते बोधः।
स्थितिरात्मनि चारित्रं कुतः एतेभ्यो भवति बन्धः।। २१३।।
अर्थ:– पोताना आत्माना स्वरूपनो विनिश्चय ते सम्यग्दर्शन छे,
आत्मस्वरूपनुं परिज्ञान (विशेष ज्ञान) ते सम्यग्ज्ञान छे तथा आत्मस्वरूपमां लीन
थवुं ते सम्यग्चारित्र छे. ए त्रणे आत्मानुं ज स्वरूप छे, तेनाथी बंधन केम थाय?
न ज थाय.
भावार्थ:– रत्नत्रय (निरूपण अपेक्षाए) बे प्रकारे छे.
(१) देवशास्त्रगुरु तथा साततत्त्वोनुं श्रद्धान व्यवहार सम्यग्दर्शन छे अने
तत्त्वोनुं स्वरूप जाणी लेवुं ते व्यवहार सम्यग्ज्ञान छे तथा अशुभ क्रियाओथी
प्रवृत्तिने हठावीने शुभ क्रियाओमां प्रवृत्ति करवी ते व्यवहार सम्यग्चारित्र छे, ए तो
थयां व्यवहार रत्नत्रय,
(२) आत्मस्वरूपनुं श्रद्धान ते निश्चय सम्यग्दर्शन तथा आत्मस्वरूपनुं
ज्ञान ते निश्चय सम्यग्ज्ञान अने आत्मामां परिणमन ते निश्चय सम्यग्चारित्र–आ
निश्चय रत्नत्रय छे. ते जीवोने कर्मोथी छूटवानुं (मोक्षनुं) कारण छे, किन्तु कर्मोनां
बंधनुं कारण नथी.