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गुरुनाम महाननुं छे, जेनामां जे प्रकारनी महंतता होय तेने ते प्रकारथी
गुरुसंज्ञा संभवे छे. जेनामां धर्मअपेक्षाए महंतता होय, ते ज गुरु जाणवा. गुरुमां
खास वात शुं होय छे ते बताववा माटे आत्म अवलोकन ग्रंथमां कह्युं छे के:–
वियरायं वियरायं जियस्सणिय ससरुओ वियरायं।
मुहुमुहु गणदि वियरायं, सो गुरुपयं भासदि सया।।२।।
अर्थ:–जीवनुं निज स्वरूप वीतराग छे–एम वारंवार कहे छे तेने ज गुरु पदवी
शोभे छे.
भावार्थ:– २८ मूळगुण (निश्चय सम्यग्दर्शनादि सहित पांच महाव्रत, पांच
समिति, पांच ईन्द्रिय निरोध, छ आवश्यक, केशलोच, अस्नान, नग्नता, अदंतधोवन,
भूमिशयन, ऊभा ऊभा भोजन अने दिवसे एकवार आहार ग्रहण) २२ परीषहजय,
पंचाचार आदि सहित बिराजमान, परमाणु मात्र बाह्यपरिग्रह अने अंतरंगमां पण
परमाणु मात्र परिग्रहनी ईच्छा नथी. उदासीन भावे ज बिराजमान छे, निजस्वभाव
जातिस्वरूपनुं साधन करे छे, (स्वरूपमां) सावधान थई समाधीमां लवलीन होय छे.
संसारथी उदासीन परिणाम कर्या छे एवा जैन साधु छे. तेओ पोताने तो
वीतरागरूप अनुभवे छे. मनने स्थिरीभूत करीने रहे छे अने ज्यारे कोईने उपदेश
पण दे छे त्यारे बीजुं बधुं छोडीने जीवनुं निज स्वरूप एक वीतराग तेने ज वारंवार
कहे छे. अन्य कोई अभ्यास तेमने नथी, मात्र आज अभ्यास छे. पोते पण अंतरंगमां
पोताने वीतरागरूप अभ्यासे छे.
बाह्यमां पण ज्यारे बोले छे त्यारे“आत्मानुं स्वरूप वीतराग छे” ए ज बोल
बोले छे. एवो वीतरागनो उपदेश सांभळी जे आसन्न भव्य (अल्पकाळमां मुक्तिपद
पामवानी योग्यतावाळा जीव) ने निःसंदेहपणे वीतरागी निज स्वरूपनुं भान–
स्पष्टभावभासन–थाय छे. एवुं वीतरागी कथन छे. ते जैन साधुने आसन्न भव्य गुरु कहे
छे, केमके बीजो कोई पुरुष एवा तत्त्वनो उपदेश करतो नथी. तेथी आ ज पुरुषने गुरुनी
पदवी शोभे छे. बीजाने शोभती नथी. एम निःसंदेह पणे जाणवुं. (आ उपरथी विशेष ए
समजवा जेवुं छे के वीतरागता, यथार्थता, स्वतंत्रता बतावे ते जैनगुरुने गुरुपद शोभे छे,
पण एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई पण कार्य करी शके, निमित्त मेळवी शकाय, बीजानुं भलुं–
बूरुं करी शकाय, परथी लाभ–नुकशान थई शके अने शुभरागथी आत्मानुं भलुं थई शके
एम बतावे, अथवा माने तेने जैनधर्ममां गुरुपदवी शोभती नथी.)