आत्मधर्म : २२७ : २१ :
धर्म
श्री समंतभद्राचार्य रत्नकरंड श्रावकाचार गा० २मां धर्मनुं स्वरूप कह्युं छे के–
देशयामि समीचीनं, धर्म कर्म निवर्हणाम्।
संसार दुःखतः सत्त्वान् यो घरत्युत्तमे सुखे।।
अर्थ:– हुं (समंतभद्राचार्य) ग्रंथकर्ता आ ग्रंथमां धर्मनो उपदेश करुं छुं के जे प्राणीओने
पंचपरावर्तनरूप संसारना दुःखोमांथी उगारीने मोक्षनां बाधा रहित उत्तम सुखमां धारण करे. ते धर्म केवो
छे? जेमां वादी प्रतिवादी वडे तथा प्रत्यक्ष=अनुमानादिवडे बाधा आवती नथी अने जे कर्मबंधनने नष्ट
करवावाळो छे ते धर्मने कहुं छुं.
भावार्थ:– संसारमां “धर्म” एवुं नाम तो बधा लोक कहे छे, पण धर्म शब्दनो अर्थ तो एवो छे
के जे नरक–तिर्यंचादि गतिमां परिभ्रमणरूप दुःखोथी आत्माने छोडावीने उत्तम आत्मिक अविनाशी,
अतीन्द्रिय मोक्षसुखमां धारण करे ते धर्म छे.
आवो धर्म वेचातो (मूल्यथी) मळतो नथी के धन आपीने दान सन्मान आदिथी प्राप्त थाय,
तथा कोईनो आप्यो अपातो नथी के कोईनी सेवा–उपासनाथी प्रसन्न करीने लई शकाय, तथा मंदिर,
पर्वत, जळ, अग्नि देवमूर्ति, तीर्थादिमां धर्मने राखी मूक््यो नथी के त्यां जईने लई अवाय, अथवा
उपवास, व्रत कायकलेशादि तपमां शरीरादि कृष करवाथी पण मळतो नथी.
देवाधीदेव तीर्थंकर भगवानना मंदिरमां उपकरणदान, मंडलविधान पूजा आदिथी तथा घर
छोडी वनस्मशानमां वसवाथी तथा परमेश्वरना नाम जाप आदिथी पण आत्मानो धर्म मळी शकतो
नथी. धर्म तो आत्मानो स्वभाव छे. परमां आत्मबुद्धि छोडीने (अर्थात् परथी भलुं–बूरूं थवुं माने,
परनुं कांई करी शकाय छे, शुभरागरूप व्यवहारना आश्रयथी धर्म थाय छे, रागादि–क्रोध–मान–माया–
लोभरूप कषाय तथा हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, पुरुषवेदरूप नोकषाय
करवा जेवा छे एवी मान्यता, तथा पर द्रव्य–पर क्षेत्रादिना कारणे मने रागादिक के सुखदुःखादि थाय छे
मान्यतामां परमां आत्मबुद्धि रहेली ज छे. ए महान भूलने बराबर ओळखी, तेनाथी रहित हुं त्रिकाळ
ज्ञायकस्वभावपणे छुं, सर्वज्ञस्वभावी छुं, परनो रागादिनो कर्ता, भोक्ता, स्वामी नथी एवा निर्णय सहित
पूर्णज्ञानस्वभावी आत्माना निश्चय अने स्वानुभव द्वारा पराश्रयनी श्रद्धा छोडीने) पोताना ज्ञाताद्रष्टा
स्वभावनी श्रद्धा, तेनुं ज्ञान अने ज्ञायकस्वभावमां ज प्रवर्तनरूप जे आचरण ते ‘धर्म’ छे.
उत्तमक्षमादि दसलक्षणरूप पोताना आत्मानुं परिणमन, रत्नत्रयरूप वीतरागभाव,
मिथ्यात्वरागादिनी उत्पत्ति रहित एवी जीवोनी दयारूप आत्मानी परिणति थाय त्यारे आ आत्मा
पोते ज धर्मरूप थशे. परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाळ, आदिक तो निमित्तमात्र छे.
जे समये आ आत्मा मिथ्यात्व–रागादिरूप परिणति छोडी, वीतरागरूप थईने देखे छे त्यारे
(निश्चय धर्मना सद्भावथी ज असद्भूत उपचारवाळा व्यवहारनयद्वारा) मंदिर, प्रतिमा, तीर्थ, दान,
तप, जप बधुंय धर्मरूप छे. अने जो पोतानो आत्मा उत्तम क्षमादि वीतरागरूप सम्यग्ज्ञानरूपे
परिणमतो नथी तो त्यां क््यांय जराय धर्म थतो नथी. जो शुभ राग होय तो पुण्यबंध थाय छे, अने
अशुभराग, द्वेष, मोह होय तो पापबंध थाय छे. ज्यां शुद्ध श्रद्धा ज्ञान स्वरूपाचरण धर्म छे त्यां बंधनो
अभाव छे, बंधनो अभाव थवाथी ज उत्तम सुख थाय छे.
(पराश्रय विनानुं अतीन्द्रिय, आत्माथी ज उत्पन्न एवुं निराकुळता लक्षण सुख ते ज धर्म छे. धर्मनी
शरूआत सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे.)
(रत्नकरंड श्रावकाचारनी स्व. पं सदासुखजी कृत देशभाषा वचनिका उपरथी.)