Atmadharma magazine - Ank 227
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यने
गुण (–पर्याय) उपजावी शकतुं नथी
अन्य द्रव्य अन्य द्रव्यने गुण (–पर्याय) उपजावी शकतुं नथी’ एम श्री अमृतचंद्राचार्य स. सार
कळश २१९मां कहे छे:–
रागद्वेषोत्पादकं तत्त्वद्रष्टया नान्यद्रव्यं वीक्ष्यते किंचनापि।
सर्व द्रव्योत्पत्तिरन्तश्चकास्ति व्यक्तानंतं स्वस्वभावेन यस्मात्।। २१९।।
अर्थ:– तत्त्वद्रष्टिथी जोतां, रागद्वेषने उपजावनारुं अन्य द्रव्य जराय देखातुं नथी, कारण के सर्व
द्रव्योनी उत्पत्ति (–दरेक द्रव्यने तेनी पर्यायोनी उत्पत्ति) पोताना स्वभावथी ज थती अंतरंगमां अत्यंत
प्रगट प्रकाशे छे.
भावार्थ:– रागद्वेष चेतनना ज परिणाम छे. अन्य द्रव्य आत्माने रागद्वेष उपजावी शकातुं नथी;
कारण के बधाय दरेक द्रव्यने पर्यायोनी उत्पत्ति पोतपोताना स्वभावथी ज थाय छे, अन्य द्रव्यमां अन्य
द्रव्यना गुण पर्यायोनी उत्पत्ति थती नथी. र१९. हवे आ अर्थने श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव गाथा. ३७२मां कहे छे
के–अन्य द्रव्यथी अन्य द्रव्यने गुणनी (पर्यायनी) उत्पत्ति करी शकाती नथी; तेथी (ए सिद्धांत छे के) सर्व
द्रव्यो पोतपोताना स्वभावथी ज उपजे छे.
टीका:– जीवने परद्रव्य रागादि उपजावे छे एम शंका न करवी; कारण के अन्य द्रव्य वडे अन्य द्रव्यना
गुणनो (पर्यायनो) उत्पाद कराववानी अयोग्यता छे; (अर्थात् परना कार्य करवानुं कोई द्रव्यमां योग्यता
सामर्थ्य नथी) केमके सर्व द्रव्योनो स्वभावथी ज उत्पाद (–द्रव्यमां नवीन पर्यायनी प्राप्ति) थाय छे.
(अहीं विस्तारथी द्रष्टांत आपी उपरोक्त सिद्धांत आचार्यदेवे बतावेल छे) माटे आचार्यदेव कहे छे के
जीवने रागादिनुं उत्पादक अमे परद्रव्यने देखता (–मानता समजता) नथी के जेना पर कोप करीए.
प्रश्न:– सत्पुरुषोनी वाणी शा अर्थे होय छे?
उत्तर:– (१) भव्य जीवोने सर्वज्ञ वीतराग कथित तत्त्वार्थ, देव, गुरु, शास्त्र अने धर्मनुं विशेष ज्ञान
थवा माटे
(२) स्व–परनो तथा हित–अहितनो विवेक थवा माटे
(३) अहितथी छुटवा माटे अर्थात् हितमां प्रवर्तवा माटे,
(४) सम्यक् प्रकारे तत्त्वनो उपदेश माटे होय छे.
प्रश्न–शास्त्र शा माटे छे?
उत्तर:– सर्वज्ञ वीतराग कथित शास्त्रोनुं तात्पर्य वीतरागता ज छे.
स्वतंत्रता, यथार्थता तथा वीतरागताने ग्रहण करवा माटे
शास्त्रनुं श्रवण, वांचन अने उपदेश छे, तेनी प्राप्ति करे तो ते सफळ छे
अन्यथा बधुं निष्फळ खेद छे.
(ज्ञानार्णव गाथा ८–९नो भावार्थ)