Atmadharma magazine - Ank 228a
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १८ : : ब्रह्मचर्य अंक :
जे पुरुषनुं शरीर रूपाळुं छे तेनो स्त्रीना हृदयमां वास छे अने ते पुण्यवंत छे. पण एवा
पुण्यवंतो य पवित्रता पासे नमी जाय छे. जेमना हृदयमां स्त्रीओ स्वप्ने पण वास करती नथी, स्त्री
संबंधी जेने विकल्प नथी अर्थात् आत्मभानपूर्वक स्त्री आदिनो राग छोडीने जेओ वीतरागी मुनि
थया छे ते पुरुषो ज आ जगतमां धन्य छे. जेने स्त्रीओ चाहे छे एवा ईन्द्रो अने चक्रवर्ती वगेरे मोटा
पुरुषो पण, जेना हृदयमांथी स्त्री टळी गई छे एवा पवित्र पुरुषोने नमस्कार करे छे–स्तवे छे.
स्त्रीओ पुण्यवंतने चाहे छे अने पुण्यवंतो धर्मात्मा संतने नमे छे, माटे पुण्य करतां पवित्रतानो–
धर्मनो पुरुषार्थ ऊंचो छे.
ईन्द्राणी ईन्द्रने चाहे छे, पद्मिणी स्त्री (स्त्री रत्न) चक्रवर्तीने चाहे छे, ए रीते स्त्रीओ
पुण्यवंतने चाहे छे अने पुण्यवंतने जगतना जीवो श्रेष्ठ माने छे. परंतु ते चक्रवर्ती वगेरे पुण्यवंत
पुरुषो पण मुनिराज वगेरे पवित्र पुरुषोने नमी पडे छे, माटे पवित्रता ज श्रेष्ठ छे. पवित्रता ईच्छवा
योग्य छे, पुण्य ईच्छवा योग्य नथी.
पूर्वना पुण्य ऊंचां? के वर्तमानमां स्वभावनो आश्रय करीने पुण्यनो विकल्प तोडी नाख्यो छे
ते ऊंचो? अहीं आचार्यदेव एम बतावे छे के जेणे आत्माना स्वभावनो आश्रय करवानो पुरुषार्थ
कर्यो छे ते ज श्रेष्ठ छे, पुण्य करीने स्त्री आदिने प्रिय थाय तेमां कांई आत्मानी श्रेष्ठता नथी, ते
आदरणीय नथी. पूर्वे पुण्य करीने तेना फळमां स्त्री आदि मळी तेना रागमां अटकवुं ते सारुं नथी,
पण पुण्यने तरणां तुल्य जाणीने अने स्त्री प्रत्येना रागने छोडीने स्वभावना आश्रये वीतरागता
प्रगट करवी ते ज श्रेष्ठ छे. माटे हे जीव! तुं स्त्री आदि संयोगनी तेम ज पुण्यनी प्रशंसा छोडीने
स्वभावनां श्रद्धा–ज्ञान–एकाग्रतानो पुरुषार्थ कर, ते धर्म छे.
चैतन्यरूपी जहाजमां चडीने तेओ संसार समुद्रनो पार पामी रह्या छे एवा संतोना चरणमां
ईन्द्रो–चक्रवर्तीओ पण नमस्कार करे छे, ते संतोने स्वभावनी लीनताथी पर तरफनो राग ज तूटी
गयो छे, तेनुं ज नाम उत्तम ब्रह्मचर्य छे. पर लक्षे ब्रह्मचर्यनो शुभराग ते तो पुण्यबंधनुं कारण छे, ते
उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म नथी.
पुण्य अने तेनां फळ तो नाशवान छे अने वर्तमानमां पण आकुळता–दुःखनां कारणो छे, पुण्य
रहित आत्मस्वभाव ध्रुव छे, तेना आश्रये जे ब्रह्मचर्य प्रगट्युं ते ज प्रशंसनीय छे, पुण्य प्रशंसनीय
नथी. ब्रह्मानंद आत्माना ज्ञानस्वरूपनो आनंद–तेनुं सेवन करीने मुनिओ मोक्ष रूपी स्त्रीने साधे छे.
पुण्यवंतने तो जेटलो काळ पुण्य होय तेटलो काळ ते स्त्रीना हृदयमां प्रिय लागशे. पण चैतन्यना
आश्रये जेणे ब्रह्मचर्य प्रगट कर्युं छे. तेने मोक्षरूपी स्त्रीनी सदा काळ प्राप्ति रहे छे अने ईन्द्र वगेरे
सर्वे उत्तम जीवो पण तेने नमस्कार करे छे. माटे ते ज भव्य जीवोए आदरणीय छे. पहेलां ज,
आत्मस्वभावमां सुख छे ने स्त्री आदि कोई विषयोमां सुख नथी एम साची श्रद्धा तथा साचुं ज्ञान
करवुं ते धर्म छे.
अहीं उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनुं व्याख्यान पूरुं थयुं.
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