Atmadharma magazine - Ank 228a
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: ब्रह्मचर्य अंक : : १७ :
नुकशान नथी माटे परनो संग करवामां बाध नथी आवी जेनी भावना छे ते स्वच्छंदी मिथ्याद्रष्टि छे, ते
तत्त्वने समज्यो नथी. जे तत्त्वज्ञान वीतरागताने पोषे छे ते तत्त्वज्ञाननी ओथे स्वच्छंदी जीव पोताना
रागने पोषे छे, तेने कदी तत्त्वज्ञान साचुं परिणमतुं नथी. ‘अहो! मारा आत्माने परथी कांई लाभ के
नुकशान नथी’ एम समजतां तो परनी भावना छूटीने स्वभावनी भावना थाय, तेने बदले, जेने
स्वभावनी भावना न थईने परना संगनी रुचि थई–ते मिथ्याद्रष्टि छे, वीतराग मार्गथी भ्रष्ट छे, तेणे
विकारने विघ्नकारक मान्यो नथी. पहेलां तो स्त्री आदिना संगथी पाप मानीने तेनाथी भयभीत रहेतो, अने
हवे तो परथी नुकशान नथी एम मानीने ऊलटो निःशंकपणे रागना प्रसंगमां जोडाईने स्वच्छंदने पोषे छे.
तेवा जीवने विकार अने स्वभावनुं भेदज्ञान करवानो महिमा नथी. तेनामां सत् समजवानी के सांभळवानी
पण पात्रता नथी.
ज्ञानमूर्ति चैतन्य स्वभावना भानपूर्वक जे नव वाड छे ते तेवा प्रकारना अशुभ रागनो अभाव
बतावे छे. ब्रह्मचारी जीवने तेवा प्रकारनो अशुभराग सहेजे टळी गयो होय छे. ब्रह्मचारी होय अने स्त्रीना
परिचयनो भाव आवे एम बने नहि. कोई जीव ब्रह्मचर्यनी वाड तोडीने स्त्रीनो संग परिचय करे, तेनी
साथे एकांत वास सेवे अने एम कहे के ‘हुं तो ब्रह्मचर्यनी परीक्षा करुं छुं!’ तो एवो जीव पराश्रयनी
रुचिथी संसारमां रखडशे. हे भाई! तने स्त्रीनो परिचय करवानी होंश थई त्यां ज तारी परीक्षा थई गई छे
के तने ब्रह्मचर्यनो खरो रंग नथी, तारे परीक्षा करवी होय तो स्वभावना आश्रये केटलो वीतरागभाव टके
छे ते उपरथी परीक्षा कर.
अहीं तो सम्यग्दर्शनपूर्वक मुनिओने केवुं उत्तम ब्रह्मचर्य होय तेनी उत्कृष्ट वात छे. खरेखर तो
वीतराग भाव ते ज धर्म छे, पण तेनी पूर्वे निमित्तरूपे ब्रह्मचर्यनो शुभ राग हतो तेने छोडीने वीतरागभाव
थयो एम बताववा ते वीतरागभावने उतम ब्रह्मचर्य धर्म कह्यो छे. मुनिराजने ज्यारे शुद्धोपयोगमां
रमणता न रहे अने विकल्प ऊठे त्यारे ब्रह्मचर्य वगेरे पंच महाव्रत पाळे छे; ते वखते कदाच स्त्री तरफ लक्ष
जाय तो कोई अशुभवृत्ति न थतां ते प्रत्ये माता, बहेन के पुत्री तरीकेनो विकल्प थाय अने ते शुभ
विकल्पनो पण निषेध वर्ततो होय छे. तेथी त्यां पण उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म छे. स्त्री आदि परना लक्षे जे विकल्प
ऊठ्यो छे ते तो राग छे, ते परमार्थे ब्रह्मचर्य नथी, पण त्रिकाळी शुद्ध स्वभावनी रुचिना जोरे ते स्त्री आदि
तरफना विकल्पनी रुचि उडाडतो विकल्प थयो छे तेथी तेने ब्रह्मचर्य कहेवाय छे अने ते विकल्प पण छेदीने
साक्षात् वीतरागभाव प्रगटावे ते परमार्थे उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म छे, ते केवळज्ञाननुं साक्षात् कारण छे.
स्वभावद्रष्टि छोडीने जेणे स्त्रीमां ज सुख मान्युं छे तेने अनंत संसारनुं भ्रमण थाय छे, अने तेने
माटे स्त्री ज संसारनुं कारण छे एम कहेवामां आवे छे. भरत चक्रवर्ती गृहस्थदशामां क्षायिक सम्यग्द्रष्टि हता
अने हजारो राणीओ हती छतां तेमां सुखनी मान्यता स्वप्नेय न हती; तेम ज तेमां जे राग हतो तेने पण
पोतानुं स्वरूप मानता नहि. तेथी स्वभावद्रष्टिना जोरे ते राग छोडीने त्यागी थई ते ज भवे केवळज्ञान
अने मुक्ति पाम्या.
एक द्रव्यने बीजा द्रव्य साथे संबंध छे एवी जे बे पदार्थना संबंधनी बुद्धि ते व्यभिचारिणी बुद्धि छे,
ते मिथ्यात्व छे, ते ज अब्रह्मचर्य छे अने ते ज खरेखर संसारपरिभ्रमणनो आधार छे. जेने एक पण अन्य
द्रव्यनी साथे संबंधनी वृत्ति छे तेने खरेखर बधाय पदार्थोमां एकत्वबुद्धि रहेली छे, तेने भेदज्ञान नथी, अने
भेदज्ञान वगर ब्रह्मचर्य धर्म होतो नथी माटे, आचार्यदेव कहे छे के, स्व परनुं भेदज्ञान करीने स्त्री आदिमां
सुख किंचित् नथी एम समजीने ब्रह्मचारीसंतो–मुमुक्षुओए स्त्री आदि सामुं जोवुं नहि, तेनो परिचय–संग
करवो नहि. सर्व पर द्रव्यो तरफनी वृत्ति तोडीने स्वभावमां स्थिरतानो अभ्यास करवो.
हवे आचार्यदेव वीतरागी ब्रह्मचारी पुरुषोनो महिमा बतावे छे–
आचार्यदेव पुण्य अने पवित्रताने जुदां पाडीने समजावे छे. आ संसारमां जेने स्त्रीओ चाहे तेवुं
सुंदर रूप छे ते पुण्यवंत छे; परंतु एवा पुण्यवंतो–ईन्द्रो, चक्रवर्तीओ वगेरे–पण, जेमना हृदयमां स्त्री संबंधी
जरा पण विकल्प नथी एवा वीतरागी संतना चरणमां शिर झुकावी झुकावीने नमस्कार करे छे. माटे पुण्य
करतां पवित्रता ज श्रेष्ठ छे. तेथी जीवोए पुण्यनी अने तेना फळनी–स्त्री आदिनी–रुचिमां न रोकातां
आत्माना वीतरागी स्वभावनां रुचि अने महिमा करवां जोईए.