Atmadharma magazine - Ank 228a
(Year 19 - Vir Nirvana Samvat 2488, A.D. 1962)
(Devanagari transliteration).

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: १६ : : ब्रह्मचर्य अंक :
स्त्रीने संसारनो आधार कह्यो–ते निमित्तनी अपेक्षाथी छे, खरेखर स्त्री कांई जीवने रखडावती नथी पण
पोताना स्वभावथी खसीने स्त्रीनी सुंदरतामां अने विषयमां जीवने रुचि थईते मिथ्यात्व परिणति छे अने
ते ज संसारनो आधार छे. स्वभावनी अपेक्षा ने परनी उपेक्षा ते ब्रह्मचर्य छे, ने ते मोक्षनो आधार छे.
सम्यग्दर्शन पहेलां पण जिज्ञासु जीवोने विषयोनी मीठास छूटीने ब्रह्मचर्यनो प्रेम होय छे. जेने अंतरमां
विषयोनी मीठाश पडी छे, ते जीवने चैतन्यतत्त्वनी प्रीति नथी. चैतन्यनो सहजानंद विषयरहित छे. ते
सहज–आनंदमय चैतन्य स्वरूपनी रुचि छूटीने जेने ईन्द्राणी वगेरे प्रत्येना रागमां मीठाश आवे छे ते जीव
मिथ्याद्रष्टि छे. निमित्तोनी ऊपेक्षा करी स्वभावमां एक्ता करवी ते ब्रह्मचर्य छे. ते मुक्तिनुं कारण छे; अने
आत्माने निमित्तोनी अपेक्षा छे एवी पराश्रितद्रष्टि ते विषय छे अने ते संसारनुं कारण छे.
आत्मस्वभावना भान वगर स्त्री छोडीने ब्रह्मचर्य पाळे तो ते पुण्यनुं कारण छे. पण ते उत्तम
ब्रह्मचर्य धर्म नथी, विषयोमां सुखबुद्धि अथवा निमित्तनी अपेक्षानो उत्साह ने संसारनुं कारण छे. अहीं जेम
पुरुषने माटे स्त्रीने संसारनुं कारणरूप कही छे तेम स्त्रीओने पण पुरुषनी रुचि ते संसारनुं कारण छे.
आचार्यदेव कहे छे के जो आ जगतमां स्त्री न होत तो संसार न होत एटले के जो जीवनी द्रष्टि स्त्री
आदि निमित्त उपर न होत तो तेनी द्रष्टि स्वभाव उपर होत, ने स्वभावद्रष्टि होत तो संसार न होत.
स्वभाव द्रष्टिथी स्वभावनो आनंद प्रगट्या वगर रहे नहि, स्वभावद्रष्टि छोडीने मिथ्यात्वथी स्त्री आदिमां
सुख मान्युं त्यारे स्त्रीने संसारनुं कारण कहेवायुं. स्त्री आदि निमित्तना आश्रये राग करीने एम माने के
“आमां शुं वांधो छे?” अथवा तो ‘आमां सुख छे’ एम माननार जीव स्वभावनो आश्रय चूकीने संसारमां
रखडे छे, आत्मानो शुद्ध उपादान स्वभाव तो परम आनंदनुं कारण छे; पण तेने भूलीने निमित्तनो आश्रय
कर्यो तेथी ते निमित्तने ज संसारनुं कारण कह्युं छे. ए क्षणिक संसारभाव जीव स्वभावना आधारे थता
नथी–पण निमित्तना आधारे थाय छे. एम बताववा माटे स्त्रीने संसारनो आधार कह्यो छे. जेम नानी
खीलीना आधारे चाक घूमे छे तेम पोतानी परिणतिमां ऊंडे ऊंडे पराश्रयमां सुख माने छे ते मान्यतारूपी
धरी उपर जीव अनंत प्रकारना संसारमां भमे छे, जीवना संसार चक्रनी धरी मिथ्यात्व छे.
श्रीमद् राजचंद्रजीए कह्युं छे के:–
“आ सघळा संसारनी रमणी नायक रूप,
ए त्यागी त्याग्युं बधुं केवळ शोक स्वरूप;”
ए तो निमित्तनी अपेक्षाए वात छे. खरेखर स्त्री संसारनुं कारण नथी. पूर्वे अनंतवार द्रव्यलिंगी
साधु थईने स्त्रीनो संग छोड्यो अने ब्रह्मचर्यव्रत पाळ्‌युं छतां कल्याण थयुं नहि. पोताना स्वभावनो आश्रय
चूकीने निमित्तनो–पुण्यनो–व्यवहारनो आश्रय मान्यो ते ज मैथुन छे; पुण्य–पाप भावोनी रुचि ते ज महान
भोग छे. तेने बहारमां संयोग कदाच न देखाय पण अंतरमां तो क्षणेक्षणे विकारनो भोगवटो करे छे.
पूर्ण वीतरागी ब्रह्मचर्यदशा पुरुषने ज होई शके छे तेथी पुरुषनी मुख्यताथी कथन छे. स्त्रीने पांचमा
गुणस्थान सुधीनी दशा होय छे, विशेष ऊंची दशा होती नथी. पंच परमेष्ठी पदमां तेनुं स्थान नथी; तेथी
शास्त्रोमां तेनी वात मुख्यपणे होती नथी. पण गौणपणे तेनी भूमिका मुजब समजवुं. स्त्रीने माटे पुरुषना
संगनी रुचि ते संसारनुं कारण छे.
शास्त्रोमां ब्रह्मचर्यनी नव वाड कही छे, ते नव वाड तेवा प्रकारना रागथी बचवा माटे छे “पर द्रव्य
पण नुकशान करे छे” एम बताववा माटे कह्युं नथी. आपणा भाव शुद्ध छे ने परद्रव्य तो नुकशान करतुं नथी
माटे ब्रह्मचर्यनी वाडनो भंग करवामां बाधा शुं? स्त्री आदिना परिचयमां शुं वांधो छे’ आवा कुतर्कथी जो
रुचिपूर्वक ब्रह्मचर्यनी वाड तोडे तो ते जीव जिनआज्ञानो भंग करनार मिथ्याद्रष्टि छे ‘परद्रव्य नुकशान करतुं
नथी माटे ब्रह्मचर्यनी वाडनो भंग करवामां बाध शुं छे!’ एटले के स्वद्रव्यनुं अवलंबन छोडीने परद्रव्यने
अनुसरवामां बाध शुं छे? आवी बुद्धिवाळो जीव मिथ्याद्रष्टि छे. हे स्वच्छंदी! परद्रव्य नुकशान करतुं नथी ए
वात तो एम ज छे, परंतु ए जाणवानुं प्रयोजन तो परद्रव्यथी पराङमुख थईने स्वभावमां वळवानुं हतुं के
परद्रव्यने स्वच्छंदपणे अनुसरवानुं हतुं? जेम परद्रव्य नुकशान करतुं नथी तेम परद्रव्यथी तने लाभ पण
थतो नथी–आम समजनारने परना संगनी भावना ज केम होय? परथी