: ब्रह्मचर्य अंक : : १प :
जे नववाड विशुद्धथी धरे शियळ सुखदाई
भव तेनो लव पछी रहे तत्त्ववचन ए भाई.
हे! भाई आत्मभान वगर तो अनंतवार नव वाडे शियळ पाळ्युं. पण ते ‘विशुद्ध’ नथी.
आत्मस्वरूपना भान सहित जे नव वाडे ब्रह्मचर्य पाळे छे तेने पछी अल्प भव ज रहे छे. आवुं तत्त्व वचन
छे. रागरहित स्वभावना भानपूर्वक स्त्री आदि प्रत्येना रागने जे टाळे छे, ने सुखदायक शियळ पाळे छे,
तेने अल्प भवज बाकी छे ए तत्त्ववचन छे.
सुंदर शियळ सुरत्तरु मन वाणी ने देह
जे नरनारी सेवशे, अनुपम फळ ले तेह
स्वभावना भान सहित रागने छेद्यो ते कल्पवृक्ष समान छे. आत्माने समजीने जे ब्रह्मचर्य पाळशे ते
नरनारी अनुक्रमे अनुपम एवा सिध्धपदने पामशे.
पात्र विना वस्तु न रहे, पात्रे आत्मिकज्ञान
पात्र थवा सेवो सदा ब्रह्मचर्य मतिमान. ७
मतिमान एम संबोधन कर्युं छे. एटले राग रहित आत्माना लक्षे जे ब्रह्मचर्य पाळे छे ते
आत्मज्ञाननी पात्रताने सेवे छे.
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म
(पूज्य गुरुदेवना व्याख्यानमांथी)
‘ब्रह्म’ एटले आत्मानो स्वभाव–तेमां–चरवुं परिणमवुं–लीन थवुं–ते ब्रह्मचर्य छे. विकार अने परना
संग रहित आत्मस्वभाव केवो छे ते जाण्या वगर उत्तम ब्रह्मचर्य होय नहि. लौकिक ब्रह्मचर्य ते शुभराग छे,
धर्म नथी, अने उत्तम ब्रह्मचर्य ते धर्म छे, राग नथी. शुद्ध आत्मस्वभावनी रुचि वगर विषयोनी रुचि छुटे
नहि. मारा स्वभावमांथी ज मारी सुखदशा प्रगटे छे, मारी दशा प्रगटवा माटे मारे कोईनी अपेक्षा नथी.
एम परथी भिन्न स्वभावनी द्रष्टि थया वगर विषयोनी रुचि छूटती नथी. बहारमां विषयो छोडे पण
अंतरमांथी विषयोनी रुचि न छोडे तो ते ब्रह्मचर्य नथी, स्त्री–घरबार छोडीने त्यागी थई जाय, अशुभभाव
छोडीने शुभ करे, परंतु ते शुभभावमां जेने रुचि अने धर्मबुद्धी छे तेने खरेखर विषयोनी रुचि छूटी नथी.
शुभ के अशुभ विकार परिणाममां एकताबुद्धि ते ज अब्रह्म परिणति छे, अने विकार रहित शुद्ध आत्मामां
परिणामनी एक्ता ते ज ब्रह्म परिणति छे. ए ज परमार्थ ब्रह्मचर्य धर्म छे.
अहीं सम्यग्दर्शन पूर्वक मुनिनी चारित्रदशाना ब्रह्मचर्यनी वात छे. जगतना सर्व विषयोथी उदासीन
थईने आत्मस्वभावमां चर्चा प्रगटी छे ते ज ब्रह्मचर्य छे अने तेना फळमां तेमने परमात्मपद मळ्ये ज
छूटको. स्वभावमां एक्ता करी अने परथी निरपेक्ष थया त्यां जे वीतरागभाव प्रगट्यो ते ब्रह्मचर्यधर्म छे.
अहीं श्री पद्मनंदि मुनिराज ब्रह्मचर्यधर्मनुं वर्णन करे छे. –
यत्संगाधारमेतच्चलति लघु य यत्तीक्ष्णदुःखौघधारं
मृत्पिण्डीभूतभूतं कृत बहुविकृति भ्रान्ति संसारचक्रम्।
ता नित्यं यन्मुमुक्षुर्यतिरलमतिः शान्तमोह प्रपश्यते–
ज्जामी पुत्रीः सावित्रीरिवहरिणहशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम्।। १०४।।
आ श्लोकमां ‘अमलमति’ शब्द उपर वजन छे. अमलमति एटले पवित्र ज्ञान–सम्यग्ज्ञान. जेने
सम्यक्ज्ञान थयुं छे एवा आत्माओ कदापि स्त्री आदिमां सुखबुद्धि न करे. आत्मामां एकाग्र रहेनारा मुमुक्षुओ
अने मुनिओ कदी स्त्रीनो संग परिचय न करे. स्त्री आदि विषयोमां सुखबुद्धिथी जीव संसारमां रखडे छे, तेथी
अहीं आचार्यदेव कहे छे के जेम कुंभारना चाकनो आधार खीली छे अने ते चाक उपर रहेला माटीना पिंडना
अनेक आकार थाय छे तेम आ संसाररूपी चाकनो आधार स्त्री छे अने संसारमां जीव अनेक प्रकारना विकार
करीने चार गतिमां रखडे छे. मोक्षाभिलाषी जीव सम्यग्ज्ञान पूर्वक विषयोनी रुचि छोडीने ते स्त्रीओने माता
समान, बहेन समान के पुत्री समान जाणे छे तेने ज उत्तम ब्रह्मचर्यधर्मनुं पालन थाय छे. जेनी निर्मळ बुद्धि
थई छे अने जेनो मोह शांत थई गयो छे एवा ब्रह्मचारी आत्माओ कदापि स्त्रीसंग न करे.
उपदेशमां निमित्तनी मुख्यताथी वचनो आवे, त्यां तेनो साचो भावार्थ समजी लेवो जोईए. अहीं