वर्ष: २०
अंक: १
कारतक: २४८९
:तंत्री:
जगजीवन बावचंद दोशी
(२२९)
समस्वभावी चैतन्यमां
झुलता संतोनो
मंगळमय प्रसाद
“शुद्ध प्रकाशनी अतिशयताने लीधे जे सुप्रकाश समान छे,
आनंदमां सुस्थित जेनुं सदा अस्खलित एकरूप छे अने अचळ
जेनी ज्योत छे एवो आ आत्मा अमने प्रगट हो! जेओ
भेदविज्ञान शक्तिवडे निज (स्वरूपना) महिनामां लीन रहे छे
तेमने नियमथी (चोक्कस) शुद्ध तत्त्वनी प्राप्ति थाय छे; तेम थतां
अचलितपणे समस्त अन्य द्रव्योथी दूर वर्तता एवां तेमने,
अक्षयकर्म मोक्ष थाय छे; चित्स्वभावना पुंजवडे ज पोतानां
उत्पाद–व्यय–ध्रौव्य कराय छे एवुं जेनुं परमार्थ स्वरूप छे अने जे
एक छे एवा बेहद ज्ञानानंदमय समयसारने हुं समस्त बंध
पद्धतिने (पराश्रय व्यवहारने) दूर करीने अनुभवुं छुं; मोक्षेच्छु ए
केवळ एक ज्ञानना आलंबनथी, नियत ज एवुं आ एक पद प्राप्त
करवा योग्य छे. हे भव्य!! ज्ञानमात्र आत्मामां आत्मानो निश्चय
करी “आमा सदा प्रीतिवंत बन, आमां सदा संतुष्ट बन अने
आनाथी बनतुं तृप्त, तुजने सुख अहो! उत्तम थशे.” एवुं सत्य
शरण बतावनार, मंगळ आशीष दातार, धर्मधोरी संतोने तथा
परम उपकारी पूज्य गुरुदेवने आ आत्मधर्म मासिकना २० मा
वर्षना प्रवेशदिने अत्यंत भक्तिभावे नमस्कार करीए छीए.
सर्व साधन संतोनो जय हो!
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