(राग: ख्याल काफी कानडी) कविवर भुधरदासजी
तुम सुनियो साधो! मनुवा मेरा ज्ञानी,
सत्गुरु भैंटा संशय मैटा, यह निश्चयसे जानी,
चेतनरूप अनूप हमारा, और उपाधि पराई. तुम. १
पुदगल म्यान असी सम आतम यह हिरदै ठहरानी
छीजौ भीजौ कृत्रिम काया, में निर्भय निरवानी. तुम. २
मैंही द्रष्टा में ही ज्ञाता मेरी होय निशानी,
शब्द फरस रस गंध न धारक, ये बातें विज्ञानी. तुम. ३
जो हम चिन्हांसो थिर कीन्हां हुए सुद्रढ सरधानी,
“भूधर” अब कैसे उतरैया, खडग चढा जो पानी. तुम. ४
भावार्थ– भेदविज्ञानी पोताने शिखामण दे छे अने नित्य
ज्ञातास्वभावना आश्रये निःशंकतानुं स्मरण करे छे–के हे साधु! हे भला
मनवाळा आत्मा! आत्मानुं असली स्वरूप तो मिथ्यात्व रागादि तथा
अज्ञानथी रहित ज्ञानमय छे. सत्स्वरूप सत्गुरुनो भेटो थयो अने सर्व
संशय मटी गया. भेदज्ञानवडे में निश्चयथी जाण्युं के नित्य, अतीन्द्रिय,
ज्ञानमय, अनुपम चैतनस्वरूप ते ज मारुं रूप छे, –ते सिवाय जे छे ते उपाधि
छे–परवस्तु छे.
जेम म्यानथी तलवार भिन्न छे तेम पुद्गलमय शरीरथी आत्मा सदा
भिन्न छे तथा पोताना त्रिकाळी ज्ञानानंदमय शरीरथी अभिन्न छे. ए वात
मने हृदयथी ज जच्ची गई छे. शरीर तो नकली चीज छे, तेनो संयोग–
वियोग, टळवुं–मळवुं स्वभाव छे. ते छेदाव, भेदाव अथवा तेनुं गमे ते थाय
तो पण हुं तो नित्य निर्भय छुं, मुक्त स्वभावी छुं. हुं ज ज्ञाता द्रष्टा छुं अने
एज मारी निशानी–मारुं लक्षण छे.
शब्द, स्पर्श, रस, गंध, अने वर्णने धारण करनार हुं नथी, हुं तो जड
देहादिथी भिन्न छुं, परनो कर्ता, भोक्ता के स्वामी नथी–एम स्व–परने
भिन्न लक्षणवडे जाणीने स्वसन्मुख कर्यो अर्थात् में मारा आत्माने आत्मामां
निःसंदेहपणे स्थिर कर्यो. आम द्रढ श्रद्धावंत थयो छुं. कविश्री कहे छे के जेम
तलवारने पायेलुं पाणी उतरे नहीं तेम हुं नित्य निर्भयस्वभावी निःशंक भेद–
ज्ञानवडे जाग्यो ते हवे परमां एकत्वबुद्धिने केम पामुं? चैतन्यथी विशुद्धनो
आदर केम करुं? अर्थात् देहादिक तथा औपाधिक भावोनो कर्ता, भोकता के
स्वामी केम थाउं? न ज थाउं, हुं तो ज्ञाता ज छुं.