: ८ : आत्मधर्म : २३०
मारा अखंड ज्ञानानंदस्वरूप स्वद्रव्यमां ढळवाथी, स्वआश्रय करवाथी ज सम्यग्दर्शनादि शुद्धिरूप कार्य
प्रगटे छे.
पराश्रय करतां करतां स्वाश्रयरूप वीतरागता थती होय तो ए तो अनंतकाळथी करतो आवे
छे, तो स्वसन्मुख थवानुं प्रयोजन शुं? परलक्षे, परद्रव्यना आलंबनमां तो संकल्प–विकल्प ऊठे छे ते
तो राग छे. रागना लक्षे अंतर एकाग्रद्रष्टि थाय ज नहिं. ज्यां सुधी व्यवहारथी, निमित्तना आश्रयथी
कार्य माने छे त्यांसुधी त्रिकाळी स्वभावमां राग–व्यवहार नथी अने स्वाश्रयथी ज लाभ छे एवी
साची द्रष्टि थती नथी.
अकार्यकारणत्वगुण एम जाहेर करे छे के रागथी निमित्तथी तारुं कार्य थतुं नथी; जो थतुं होय
तो राग अने निमित्तोना आश्रय करवारूप कार्यने जीव छोडे ज नहीं पण अनंता ज्ञानीओ
शुद्धनिश्चयनयना विषयरूप शुद्धात्मामां एकमां ज आरूढ थई स्वाश्रयथी ज, मुक्ति सुखने पाम्या छे.
जे कोई एम माने छे के हुं परद्रव्यना कार्यमां कारण छुं तो ते तेना अभिप्रायमां त्रणेकाळना अनंता
परद्रव्यना कार्यमां हुं कारण छुं एम माने छे, तेथी तेने परनी संगति मटे ज नहीं.
दरेक वस्तु पोताना अनंतगुणथी कायम रहीने प्रत्येक समये नवी नवी पर्यायो प्रगट करे छे–
उत्पादव्यय अने ध्रुवपणे पोते ज वर्ते छे. जो परना कारणे उत्पाद–व्यय थाय तो परना संबंधथी छूटी
शके नहीं, स्वभावमां एकाग्रता करी शके नहीं. राग मारुं कार्य माने ते रागनी रुचिमां पड्यो छे, राग
मारुं कारण अने निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान मारुं कार्य अथवा रागद्वेष मोहभावने हुं कारण एम माने तेने
संसार चालु जरहे.
आत्मद्रव्य तो त्रणेकाळे अनंत अविकारी गुणोनो पिंड छे, तेमां एक अंश पण आस्रव–
मलीनतानो प्रवेश नथी, ग्रहण–त्याग नथी–आम निर्णय करे तो ज भावभासन सहित
शुद्धात्मप्रतिभासरूप सम्यग्दर्शन थाय.
आत्मद्रव्य वीतरागतामां कारण छे अने रागमां कारण नथी– आनुं नाम अनेकान्त छे. क्षणिक
दशामां राग पोताना अपराधथी थाय छे पण ज्ञानी तेने आत्मद्रव्यनुं कार्य गणता ज नथी, केमके
आत्मा तेवो ने तेटलो नथी. आस्रव अने तेना कारण कार्य ने जीव तत्त्व मानवामां आवेल नथी.
आत्मद्रव्य रागमां कारण होय, व्यवहार रत्नत्रयनुं कारण होय तो रागनी क्रिया करवाना तेनो
स्वभाव ठर्यो, जे कदी छूटी शके नहीं. वस्तु एक समयमां परिपूर्ण छे. अबंध परिणामी आत्मा रागने
अने बंधने स्पर्शतो नथी; रागने अने बंधने स्पर्शे तो आत्मा अने आस्रव बे जुदा साबीत थता
नथी.
सम्यग्द्रष्टि जीवनी द्रष्टि एकला स्वभाव उपर छे; तेथी पोताने नवा कर्मनां बंधनरूपी कार्यमां
हुं कारण छुं, परनी क्रियामां हुं निमित्तकर्त्ता छुं एम मानतो नथी. जीव परना कार्यमां निमित्तकर्त्ता होय
तो पर द्रव्यना कार्यमां तेने हाजर रहेवुं ज पडे, त्यांथी छूटी शके नहीं. रागमां आत्मद्रव्य कारण होय
तो रागथी छूटी शके नहीं, पण जाणे तो ज ४७ शक्ति अने एवी अनंतशक्तिनो धारण करनार
आत्मामां द्रष्टि करी अपूर्व अनुभव करी शके.
अहो! अपूर्व कार्य शुं, सत्य शुं, द्रव्य गुण, पर्याय अने तेनी स्वतंत्रता शुं ते सांभळ्युं ज नथी.
सर्वज्ञ भगवाने कह्या मुजब मिथ्यात्वादि आस्रव तत्त्व शुं अने तेनाथी रहित आत्म तत्त्व शुं,
ज्ञातापणुं शुं ते वात अनंतकाळमां अज्ञानीजीवे लक्षमां लीधी नथी. कह्युं छे के–
दोडत दोडत दोडत दोडीयो,
जेती मननी दोड जिनेश्वर,