मागशर: २४८९ : ९ :
प्रेम प्रतीत विचारो ढूंकडी.
गुरु गम लेजो जोड जिनेश्वर,
धर्म जिनेश्वर गाउं राग शुं.
ज्यां सुधी पोतानी द्रष्टि संयोग अने पुण्यपापमां पडी छे. त्यां सुधी पोतानी कल्पनावडे परथी
लाभहानि माने छे. पण सत्य असत्यनो निर्णय करी अपूर्व वस्तु पोतामां ज छे, स्वाश्रयथी ज
मुक्तिनो उपाय छे एम द्रढता न करे तो गुरुने ओळख्या नथी अने तेणे वीतरागनी आज्ञा मानी
नथी. देव, शास्त्र, गुरु परपदार्थ छे ते तारा कार्यना कारण थई शके नहीं ने तारामां एवी शक्ति नथी
के परद्रव्यना कारणे तारुं कार्य थाय.
चैतन्य द्रव्य स्वभावमां अनादि अनंत अनंता गुणो भर्या छे, जे द्रव्यना संपूर्ण भागमां अने
त्रणे काळनी संपूर्ण अवस्थामां रहे छे, तेमां स्वयं कारण कार्यपणे होवुं, परथी न होवुं, परनी
आधीनतापणे कदी न होवुं एवो गुण छे ने परने निमित्त कारण थईशके, परथी, रागथी तेनुं कार्य थई
शके एवो गुण तेमां नथी ए वात अनेकान्त प्रमाणथी नक्की करे तो ज पराश्रयथी छूटी स्वाश्रयरूप
धर्म एटले के सुखी थवानो उपाय करी शके.
समयसारजी गा. १०प मां आ वात आवी छे के आत्मामां कर्मबंधनमां निमित्त थवानो
स्वभाव नथी, जो होय तो छूटी शके नहीं, रागनी उत्पत्ति करवानो जीवनो स्वभाव होय तो ते पण
छूटी शके नहीं. भूमिकानुसार उचित शुभराग होय छे खरो पण शुभ राग छे तो ४–प–६–७
गुणस्थाने वीतरागता छे एम नथी. परना कारणे, रागना आश्रये, व्यवहारना आलंबनथी
वीतरागतानुं एटले निर्मळ श्रद्धा–ज्ञान–चारित्रनुं उपजवुं, वधवुं के टकवुं नथी एम अकार्यकारणत्व
शक्ति प्रसिद्ध करे छे.
तारो वीतराग विज्ञानघन स्वभाव छे. जेम पीपरना दाणामां पूर्ण शक्तिहती ते प्रगटी तेम
तारामां पूर्ण सामर्थ्यथीभरेला अनंतगुण सदाय भर्या पड्या छे. छे तेमां एकत्वनी द्रष्टि करी
स्वसन्मुख था, तो सम्यक्भाव श्रुतज्ञानमां तारुं असली स्वरूप लक्षमां आवी जाय. ध्रुव ध्येय प्राप्त
थवानी द्रष्टि थतां द्रष्टिमांथी संसार बंधन छूटी जाय छे. आम स्वाश्रयथी ज जन्म मरण अने
औपाधिक भावोनो नाश थई शक्तिमां शुद्धता हती ते प्राप्त थाय छे.
परना कार्यमां निमित्तकर्तानी द्रष्टिवाळाने राग अने विकारनी रुचि रहे ज छे. तेथी तेने ज्ञाता
स्वभावनो अनादर अने परमां कर्त्तापणानो आदर छे तेथी एना फळमां एकेन्द्रिय निगोदमां पण
निमित्तकर्ताने जवुं ज पडशे, केमके जेम छे एम ते मानतो नथी, पण विरुद्ध ज माने छे, तेथी ते
सर्वज्ञने तथा तेमनी वाणीना अर्थने पण मानतो नथी; तेथी सत्यना विरोधनुं फळ एकेन्द्रिय पशुपद
छे. पण आत्माना स्वभावमां एवुं पद नथी ने तेना कारणरूप गुण नथी. आत्मामां प्रमाण प्रमेय
शक्ति छे, पण कोई साथे कारणकार्य माटे दरेक द्रव्य अने तेना गुण, पर्याय नालायक छे, अयोग्य छे,
लायक नथी. समयसारजी गा. ३७२ अने तेनी टीकामां ए वात आचार्यदेवे अत्यंत स्पष्ट कही छे.
सम्यग्द्रष्टि जीव एम माने छे के कर्मबंधमां मारुं निमित्तपणुं नथी. वर्तमान अल्प चारित्र दोष
छे पण ते स्वाश्रयद्रष्टिनुं कार्य नथी, जीवनुं कार्य नथी, आस्रवनुं कार्य परमां जाय छे.
अहो! तारामां चैतन्य सामर्थ्यने शोभावे एवी अनंतशक्ति प्रतापवंत एवास्वद्रव्यना आश्रये
भरी पडी छे एवास्वद्रव्यना आश्रये सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्ररूप निर्मळ पर्यायरूपी कार्य प्रगट थाय
छे. “एक होय त्रण काळमां परमारथनो पंथ.” निर्मळ नीतरतुं माखण पीरसाय छे. कठण अनेऊंची
भूमिकानी वात नथी. समजी शकनार चैतन्यने ज आचार्यदेवे आत्मऋद्धि बतावी छे. आनो ज आदर,