Atmadharma magazine - Ank 230
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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: २० : आत्मधर्म: २३०
आदर करवानी ताकात निश्चयनयमां छे ते ज नय पोताने शुद्ध आत्मिक महानंदमां जोडे छे. निश्चयनय
एटले शुद्धनय ते स्वसन्मुखता वडे आत्मानुभवमां वाळे छे, पोताना असली स्वरूपना आश्रये लाभ
बतावे छे तेथी पूज्यतम छे.
आत्माने हितमां प्रवृत्ति अने अहितथी निवृत्ति नयज्ञान द्वारा थाय छे. अभेद निर्विकल्प
द्रव्यस्वभावने मुख्य करी तेने निश्चय कह्यो अने ते एकनो ज आदर करवामां आवे छे. पर्यायमां
विकल्प, राग, निमित्त–नैमित्तिक संबंधना भेद छे तेने निश्चय नयद्वारा गौण करी, व्यवहार करी,
पराश्रयनो भेद टाळवा माटे परद्रव्यमां नाखवामां आवे छे. हेय तत्त्वनो त्याग करवो पडतो नथी
वीतरागी द्रष्टि थतां प्रथम श्रद्धामां सर्व विभावनो त्याग थई जाय छे, पछी वीतरागी चारित्र नी
भूमिकामां बळ वधे छे तेटला अंशे रागनो त्याग थई जाय छे–एटले के ते उत्पन्न थता नथी.
समयसारजी गा. २७२मां कह्युं छे के:–
“व्यवहारनय ए रीत जाण, निषिद्ध निश्चयनय थकी,
निश्चयनयाश्रित मुनिवरो, प्राप्ति करे निर्वाणनी.”
मुख्य ते निश्चय–भूतार्थ, तेमां ढळतां स्वपरप्रकाशक ज्ञान साचुं थाय छे. ते सर्वज्ञनाज्ञान अनुसार
सर्व पदार्थने द्रव्य–गुण–पर्यायथी त्रणे काळे स्वतंत्र देखे छे. बधां द्रव्यो पोतपोताना परिणामना कर्ता
होवाथी उत्पाद–व्यय–ध्रौव्यरूप निज स्वभावथी ज ऊपजे छे–एम स्वीकार करे पछी अभूतार्थ व्यवहार
भूमिकानुसार निमित्त पणे केवो होय तेने जाणतुं ज्ञान प्रगट थाय छे तेनुं नाम व्यवहारनय छे.
ज्ञानीने पण दया, दान, भगवाननी भक्ति वगेरेनो राग आवे छे. निमित्त निमित्तना
स्थानमां होय पण तेनाथी जीवना परिणाम सुधरे अथवा बगडे एम त्रण काळमां बनतुं नथी.
लालमणिनी माळा फेरवे तो लाभ थाय, मंदिरमां जई भगवान पासे बेसे तो पुण्य थाय,
परनी मदद मळे तो कार्य थाय, तीर्थंकरनी धर्मसभामां जाय अने धर्म सांभळे तो सम्यग्दर्शन थाय,
वज्रकाय शरीर मळे तो मोक्ष थाय–ए बधां कथन असद्भूत व्यवहारनयथी निमित्त बताववा माटे छे.
कोई पण निमित्त उपादाननुं कार्य करवा माटे अलायक छे, अयोग्य छे.
तत्त्व द्रष्टिथी जोतां एक द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई पण कार्य करवा माटे नालायक छे–अयोग्य छे,
केमके दरेक गुणनुं कार्य परथी निरपेक्ष छे, छतां निमित्त बताववा सापेक्ष कहेवुं ते व्यवहार छे, परमार्थ
नथी–एम त्रणे काळ माटे वस्तुनी व्यवस्था छे.
राष्ट्रीय भावना
(स्त्रग्धरावृत्तम्)
क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपाल;
काले काले च सम्यग्वर्षतुं मधवा व्याधयो यान्तु नाशम्;
दुभिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूत्जीवलोके,
जैनेन्द्रं धर्मचक्रं प्रभवतु सततं सर्व सौख्यं प्रदायि.
(ईन्द्रवज्रा)
संपूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र सामान्य तपोधनानांम्
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ: करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र:
भारतनी सीमा उपर चीनाओनुं आक्रमण अने ते द्वारा थयेल अशांति सत्त्वर दूर थाय अने
समग्र देशमां सुख–शान्ति व्यापे एवी भावना भावीए छीए.