Atmadharma magazine - Ank 231
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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वर्ष वीसमुं : अंक : ३जो संपादक : जगजीवन बावचंद दोशी पोष : २४८९
शुद्धद्रष्टि अने अनुभव माटे शुं जोईए?
श्रद्धाना एकरूप विषयमां संसार, मोक्ष अने मोक्षमार्गना कोई भेदनो स्विकार
नथी. निरपेक्ष अखंड पूर्ण स्वभावभावनुं लक्ष करवुं ते शुद्ध द्रष्टिनो अने श्रद्धानो विषय
छे. प्रमाणज्ञानमां त्रिकाळस्वभाव, वर्तमान अवस्था तथा निमित्तने जाणे छे पण श्रद्धामां
कोई पडखानो भेद नथी. परिपूर्ण एकरूप ध्रुवस्वभावनो महिमा लावी स्वरूपमां एकाग्र
थतां अपूर्व शान्तिनो अनुभव थाय छे. ते वखते प्रमाण, नय वगेरेना कोई विचार होता
नथी. अने ते काळे हुं शान्तिने वेदुं छुं एम पर्याय उपर लक्ष होतुं नथी. आवुं सांभळीने
कोई माने के आम ध्यानमां बेसी ठरी जईए, पण भाई रे! हठथी ध्यान होतुं नथी. ते
जातनी पात्रता अने सत्समागमे ते माटेनो अभ्यास करवो जो्रईए, रागद्वेष मोटुं पाप
नथी पण तत्त्वार्थ संबंधी मिथ्या अभिप्राय ज मोटुं पाप छे ते पाप अन्य उपायथी टळे
नहीं पण विपरित अभिप्राय रहित सर्वज्ञ कथित तत्त्वार्थोनी द्रढ श्रद्धा करवी जोईए, मारे
माटे हित अहित रूप शुं छे ते भावोने ओळखी उपादेयनो आदर करी ते हितस्वरूपमां
ढळवाथी ज सम्यग्दर्शननी प्राप्ति थाय छे. पर वडे मारुं भलुं भूंडुं थई शके; हुं परनुं,
शरीरनुं, वाणीनुं कांई करी शकुं छुं; पराश्रयथी लाभ माने, शुभरागथी धर्म माने ए
मिथ्या मान्यता छे ते अनादिनी भूल टाळवा माटे जात उपर आववुं पडशे.
मारूं हित अहित मारा वडे ज थाय छे. ए वातनो अनुभव जातनी दरकार करे तो
थाय छे. ते माटे तत्त्वनिर्णयनो पुरूषार्थपूर्वक उद्यम करवो जोईए. कोई कर्म मारग आपे,
अमूक काळ आवे त्यारे अंदरमां ज्ञाननो उद्यम थाय एम पराधिनपणुं नथी. अपूर्व
तैयारीथी केवळ पोताना परमार्थ माटे रात दिवस झुर्या विना तेना बारणाखुलता नथी.
पुण्यथी पैसा, बंगला, आबरू वगेरे धूळ मळी तेमां आत्माने शो लाभ? परना
अभिमानवडे ज्ञातास्वभावनी द्रढतानो नाश थई रह्यो छे. पोतानो असली स्वभाव
संयोग अने विकारना स्पर्श विनानो, परना कर्ता–भोक्ता विनानो स्वाश्रित छे, तेनो मूढ
जीव पुण्यनी रुचि वडे तिरस्कार करे छे. लोको पुण्यने भलुं माने छे पण बंधन अने
दुःखदाताने भलुं केम मनाय? बहारनी प्रवृत्ति, देहनी क्रिया आत्मानेआधिन नथी.
पणअंदर जड कर्मने निमित्त बनावीने निमित्ताधिन करवामां आवता शुभभाव पण
आत्महित माटे भला नथी. आत्माना अनुभव माटे मनना संबंधे विचार करवामां आवे
छे ते पण रागमिश्रित भाव होवाथी अभूतार्थ छे. श्रद्धाना अनुभवमां तेनोअभाव थाय
छे, गुण गुणी भेदनो राग अंदर ठरवा माटे मददगार नथी तो पछी बाह्यमां क्युं साधन
मददगार होय?