: २० : आत्मधर्म : २३२
अत्यंत संतुष्ठ थई हती. जे पहेलां कदी पण प्राप्त थयुं नथी. एवा सम्यग्द्रर्शन रूपी रसायननो
आस्वाद करीने ते बंने दंपती कर्मनष्ट करवावाळ जैन धर्ममां महान द्रढताने प्राप्त थया,
(पहेला कहेला) सिंह, वांदरो, भूंड अने नोळियाना जीव पण गुरुदेव प्रीतिंकर मुनिना
चरणमूळनो आश्रय पामीने आर्यवज्रघ अने आर्या श्रीमतीनी साथो साथ ज सम्यग्दर्शनरूपी अमृतने
प्राप्त थया हता, जेओए आनंद दर्शक चिन्होथी पोताना मनोरथनी सिद्धिने प्रगट कर्या छे एवा बन्ने
दंपतीओने बंने मुनिराज धर्मप्रेमथी वारंवार स्पर्श करी रह्या हता,
ते वज्रजंघनो जीव जन्मांतर संबंधी तेमना प्रत्ये प्रेमना कारणे आंखो फाडी फाडीने श्री
प्रीतिंकर मुनिराजना चरण कमळ तरफ देखी रह्यो हतो अने एमनां क्षणभरना स्पर्शथी बहु ज संतुष्ट
थई रह्यो हतो अने एमनां क्षणभरना स्पर्शथी बहु ज संतुष्ट थई रह्यो हतो. त्यारपछी ते बंन्ने
चारणमुनि पोताना योग्य देशमां जवा माटे तैयार थया. ए समये वज्रजंघना जीवे तेओने प्रणाम
कर्या, अने थोडे दूर सुधी वळाववाने माटे ते एमनी पाछळ ऊभो थई गयो. जती वखते ए बन्ने
मुनिओए एने आशीर्वाद दईने हितनो उपदेश दीधो, अने कह्युं के हे आर्य! फरीने पण तारा दर्शन
हो, तुं आ सम्यग्दर्शनरूपी सम्यक्धर्मने भूलतो नहीं आ प्रमाणे कहीने ते बंने गगनगामी मुनि शीघ्र
ज अद्रश्य थई गया.
त्यारपछी ज्यारे बंने चारण मुनिराज चाल्या गयां त्यारे ते वज्रजंघनो जीव एक क्षणसुधी बहु
ज दुःखी थई रह्यो. ते योग्य ज छे. प्रिय मनुष्योनो विरह मननां संताप माटे होय छे. ते वारंवार
मुनिओना गुणोनुं चिंतवन करीने पोताना मनने भिंजायेलुं करतो थको लांबाकाळसुधी धर्म वधारवावाळा
नीचे प्रमाणे विचार करवा लाग्यो. अहो! केवुं आश्चर्य छे के साधुपुरुषोनो समागम हृदयना संतापने दूर
करे छे, परम आनंदमां वृद्धि करे छे’ अने मननी वृत्तिने संतुष्ट करी दे छे. घणुं करीने साधुपुरुषोनो
समागम दूरथी ज पापने नष्ट करी दे छे. उत्क्ृष्ट योग्यताने पुष्ट करे छे अने अति अति कल्याणनो वधारो
करे छे. आ साधुपुरुषो मोक्षमार्गने सिद्ध करवामां सदा तल्लीन चित्तवाळा रहे छे, एमने संसारी जीवोने
प्रसन्न करवानुं कांईपण प्रयोजन होतुं नथी. आ मुनिजन फक्त परोपकार करवानी बुद्धिथी ज एमनी
पासे जईने मोक्षमार्गनो उपदेश आप्या करे छे. खरेखर आ महापुरुषनो स्वभाव ज छे.
मोक्षनी ईच्छा करवावाळा आ साधुजनो पोताना दुःख दूर करवामां आरंभ नथी करतां, परना
दुःख दूर करवामां सदा तत्पर रहे छे. अने बीजानुं कार्य सिद्ध करवा माटे निस्वार्थभावे सदा तैयार रहे
छे. कय अमे अने क््यां आ अत्यंत निस्पृह साधु? अने क््यां आ मात्र सुखोना स्थानभूत भोगभूमि.
अथवा निस्पृही मुनिओनुं भोगभूमिमां जईने त्यांना मनुष्योने उपदेश देवो सहज कार्य नथी तो पण
ए तपस्वी अमारा पर उपकार करवामां केवां सावधान छे. आ साधुजन सदा आ ज प्रयत्न कर्या करे
छे के “चैतन्यस्वभावमां जाग्रतिद्वारा समस्त जीव सदा सुखी रहे” अने तेथी ज ते यति कहेवाय छे.
जेवी रीते आ चारणऋद्धिधारक पुरुषोए दूरथी आवीने अमारा पर उपकार कर्यो, एवी रीते महापुरुष
बीजानो उपकार करवामां सदा प्रीति राखे छे. तपरूपी अग्निना संगथी जेनुं शरीर अत्यंत कृश थई
गयुं छे एवा ए चारण मुनिओने हुं अत्यारे पण साक्षात् देखी रह्यो छुं. मानो तेओ अत्यारे पण
मारी समक्ष उभा छे. हुं एमना चरणकमळमां प्रणाम करी रह्यो छुं. अने ते बंने चारणमुनि तेमना
कोमळ हाथथी मारा मस्तकनो स्पर्श करतां थकां मने स्नेहने वश करी रह्यां छे, धर्मना तरस्या एवा
मने तेओए सम्यग्दर्शनरूपी अमृत पीवडाव्युं छे. तेथी मारूं मन भोगथी जन्मेलुं दुःख छोडीने अत्यंत
प्रसन्न थई रह्युं छे.
ते प्रीतिंकर नामना वडील मुनि खरेखर प्रीत्तिंकर छे. कारण के एमनी प्रीति सर्वत्रगामी छे.
अने मार्गनो उपदेश आपीने एमणे अमारा पर अपार प्रेम दर्शाव्यो