दीपकवत् विकृति ह्वे नांहि अन्य ज्ञेय सो ज्यों जग मांहि,
परका कर्त्ता बन अनादि तैं भ्रम्यो आप चतुर्गति मांहि.
नाना कष्ट सहे विधिवशतें कबहु नहुओ ज्ञान उजारो,
त्रिभूवनपति हो अंतर्यामी, भये भिखारी निगै निहारो.
जिनमार्ग पाओ अब तो अविजन, शुद्धस्वभाव सदा उर धारो.
चेतनजी स्वस्वभाव संभारो, परपरभाव सबै परिहारो.
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ए ज आ मनुष्यदेह छे के जे देहमां योगमां आत्यंतिक,
एवा सर्व दुःखना क्षयनी चिंतिता धारी तो पार पाडे छे.
अचिंत्य जेनुं महात्म्य एवुं सत्संगरूपी कल्पवृक्ष प्राप्त थाये,
जीव दरिद्र रहे एम बने तो आ जगतने विषे आश्चर्य ज छे”.