Atmadharma magazine - Ank 234
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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पारमार्थिक भेदविज्ञान
आ पुरुष पोताना आत्माने शरीरादिकथी भिन्न शांभळतो होय, कहेतो
होय तो पण ज्यां सुधी भेदअभ्यासमां निष्ठित (–परिपकव) न थाय त्यां
सुधी भेदविज्ञान सतत् भाववुं, केमके निरन्तर भेदज्ञानना अभ्यासथी ज
देहादिकनुं ममत्व छूटे छे. (ज्ञानावर्ण ८प)
आत्माने आत्मा द्वारा ज आत्मामां ज शरीरथी भिन्न विचारवो के
जेथी फरीने आ आत्मा स्वप्नामां पण शरीरनी संगतिने न पामे अर्थात् हुं
शरीर छुं एवी बुद्धि स्वप्नामां पण न थाय एवो निश्चय करवो जोईए. ८६
सर्वत्र करवा योग्य कार्य तो मात्र आत्मार्थ ज छे
ए प्रयत्न करवो योग्य छे के जेथी भ्रान्तिने छोडी आत्मानी स्थिति
आत्मामां ज थाय, अने एज विषय जाणवो जोईए तथा तेने ज वचनथी
कहेवो सांभळवो अने विचारवो जोईए. ६७
(राग – विलास)
सुमर सदा मन आतमराम,
स्वजन कुटुम्बी जन र्तूं पोषै तिनको होय सदैव गुलाम,
सो तौहै स्वारथके साथी, अन्तकाळ नहिं आवत काम. सुमर..
१.
जिमि मरीचिकामें मृग भटकै, परत सो जब ग्रीषम अतिाधम,
तैसे तूं भव भवमांही भटकै, धरत न ईक छिनहू विश्राम.
सुमर..२.
करत न ग्लानि अब भोगन में धरत न वीतराग परिणाम,
फिर किमि नरकमांहि दुःख सहसी जर्हां सुख लेश न आठोंजाम.
सुमर..३.
तातै आकुलता अब तजिके थिर हवै बैठो अपने धाम,
‘भागचंद’ वसि ज्ञान नगरमें, तजि रागादिक ठग सब ग्राम. सुमर..४.