ATMADHARAM Reg. No. G. 82
“पुरुषार्थ पूर्वक उद्यमीना विचार”
आत्म हितमां सावधान जीव प्रथमनी एवा विचार करे छे के–अहो? गया
काळमां मारी भूलनुं शुं वर्णन करू, महाखेद छे के हुं ज्ञानानंदमय अनंत–गुणरूपी
कमळोने विकास करवाने समर्थ बनुं छुं तो पण शांत–स्वभावमां चित्त लगाडवुं छोडीने
परद्रव्यमां मारी ईच्छानुसार परिणमन थाय एवी मिथ्याश्रद्धाथी संसार वनमां हुं
मारा वडे ठगायो हतो.
मारा विभ्रमथी उप्तन्न शुभ–अशुभ रागादिना अतुल बंधन वडे अनंत काळ
सुधी संसाररूपी दुर्गम मार्गमां विडंबणारूप थईने में ज विपरित आचरण कर्युं, हवे हुं
आत्मानु ज अवलोकन करुं, मिथ्यात्व रागादिरूपी संसार नामे जवररोग तेनाथी मने
मूर्छा, ममता–अने तृष्णा थवाथी हित–अहित जाणवामां हुं ज अंध थयो हतो. तेथी
पोताना भेद विज्ञानथी प्रगट थवा योग्य साक्षात् मोक्षमार्गने में जाण्यो नहीं, देख्यो
नहीं, अनुभव्यो नहीं.
अहो! मारो आत्मा समस्त लोकनो द्रष्टा अद्वितीय नेत्र छे एवो परमतत्त्व छे,
छतां अविद्या–मिथ्या ज्ञानरूपी भयंकर मघर द्वारा सम्यज्ञाननो घात थई रह्यो छे, एम
में जाण्युं नहीं.
मारो आत्मा परमात्मा छे, परम ज्योति चैतन्य प्रकाश स्वरूप छे. जगतमां
श्रेष्ठ छे, महांन छे. तो पण वर्तमान देखवा मात्र रमणीय अने निरस अथवा स्वाद्रिष्ट
विषफळ जेवा ईन्द्रियोना विषय अनेतेना प्रेमथी हुं ठगायो छुं.
शरीर राख्युं रहेवानुं नथी. रात्री–दिवस देहार्थ ममत्वने लईने आ जीव स्वात्म
बोधथी वंचित रहे छे, देहनी माया विसारी–स्वरूपमां विश्रांतिवान थये ज तने
वास्तविक सुखनां किनारानी झांखी थशे.
हुं अने परमात्मा बेउने ज्ञाननेत्र तो तेथी हुं मारा परमनिधान अनंत गुण
संपन्न आत्माने ते परमात्मानां स्वरूपनी प्राप्ति माटे ज जाणवानी, स्वानुभवनी,
भावना, चिंतन अने एकाग्रतानो अभ्यास करूं छुं, एम विवेकी जन विचारे.
श्री दिगंबर जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट वती प्रकाशक अने
मुद्रक : हरिलाल देवचंद शेठ, आनंद प्रीन्टींग प्रेस–भावनगर.