आत्मधर्म : १९ :
मंगल जन्मोत्सव अंक
धन्य ए शुद्धोपयोगी संत
(प्रवचनसर ग. १४ न प्रवचनमथ: मह वद छठ्ठ)
– शुद्धोपयोनुं फळ परम अतीन्द्रिय सुख अने केवळज्ञान छे. ते प्रशंसनीय छे.
– ते शुद्धोपयोग कोने होय? –के जेने प्रथम तो भेदज्ञानवडे स्वद्रव्य अने
परद्रव्यने जुदा जाण्या छे; ते उपरांत मध्यस्थ भावरूप थईने निजस्वरूपमां ठर्या छे,
एवा समभावी श्रमणने शुद्धोपयोग होय छे.
– अहो, शुद्धोपयोगमां वीतरागता छे, ते वीतरागतामां विषमता नथी.
– ज्यां स्व–परनुं भेदज्ञान न होय त्यां विषमता होय, त्यां वीतरागी समभाव
न होय.
– पहेलां वस्तुस्वरूप जेम छे तेम ज्ञानमां ने श्रद्धामां पण जो न आवे तो तेना
सम्यक् आचरणनुं विधान क््यांथी होय?
– पहेली वात ए छे के भावश्रुतवडे जेणे शास्त्रनुं रहस्य एम जाण्युं छे के
स्वद्रव्य ने परद्रव्य अत्यंत भिन्न छे; दरेक द्रव्य निजपरिणाममां तन्मयपणे परिणमे छे,
अन्य द्रव्य साथे तेने जराय संबंध नथी.
– भाई, शास्त्रमांथी जो आवुं रहस्य तुं काढ तो ज तुं शास्त्रना रहस्यने
समज्यो छे. जो आवुं रहस्य न समज तो तने शास्त्रनुं ज्ञान ज नथी.
– अहीं तो शास्त्रना अर्थोना ज्ञानना बळवडे जेणे भेदज्ञान कर्युं छे, जेणे
सम्यग्दर्शन कर्युं छे, अने ते उपरांत जेणे निज स्वरूपमां लीनता प्रगट करी छे एवा
शुद्धोपयोगी मुनिनी वात छे. सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान तो गृहस्थदशामांय थाय छे, पण ते
उपरांत आगळ वधीने मुनिदशा अने शुद्धोपयोगनी आ वात छे.
– आत्मा परद्रव्यने कांई करी शके छे–ए वात तो भेदज्ञान थयुं त्यां ज छूटी
गई, पण हजी असंयमभाव होवाथी हिंसादिनी वृत्ति होय छे; परंतु पछी स्वरूपमां
ठरतां छ जीव निकायने हणवाना विकल्प पण अटकी गया छे, तेम ज पांच ईन्द्रिय
संबंधी अभिलाषा पण छूटी गई छे, ए रीते आत्माने संयमभावमां स्थिर कर्यो छे,
शुद्धस्वरूपमां ज सम्यक्पणे आत्मानुं संयमन कर्युं छे, –एवा जीवने सुखदुःखजनित
विषमतानो अभाव छे, –ने तेने ज परम साम्यभावरूप शुद्धोपयोग होय छे.
– ते शुद्धोपयोगी मुनिराजने स्वरूपविश्रांत निस्तरंग चैतन्य प्रतपतुं होवाथी ते
तपसहित छे. अहा, तप कोने कहेवुं एनी पण अज्ञानीओने तो खबर नथी. शुद्धस्वरूप
शुं अने तेमां एकाग्रतारूप तप शुं–तेनी ओळखाण तो पहेलेथी हती, अने पछी ते