आत्मधर्म : २० :
मंगल जन्मोत्सव अंक
ओळखाण अनुसार तेनो अमल करीने निजस्वरूपमां ठर्या ने संयम–तपरूप
देदीप्यमान दशा प्रगट करी, चैतन्यने शोभाव्यो, आत्माने वीतरागभावथी
झळहळाव्यो, –आवा प्रतापवंत आत्माने शुद्धोपयोग होय छे.
– सम्यग्द्रष्टिने चोथा गुणस्थाने कोईकवार (निर्विकल्प अनुभूति वखते)
शुद्धोपयोग होय छे ने परम अतीन्द्रिय आनंदनो आह्लाद अनुभवाय छे. –पण ते
क््यारेक होवाथी तेनी वात गौण छे; मुनिनी वात मुख्य छे. मुनिओने वारंवार
स्वरूपमां लीनताथी आवो शुद्धोपयोग थाय छे.
– परद्रव्यनुं तो अस्तित्व ज जुदुं छे एटले तेनी तो शुं वात? शास्त्रना अर्थ
जाण्या त्यां ज परद्रव्यने तो अत्यंत जुदा जाण्या. निजस्वरूप चैतन्यमय छे ते परथी
जुदुं छे; एवा सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान कर्या त्यां निजस्वरूपमां ज ठरवानुं रह्युं.
– अहो, आ संतोनी वाणी छे. संतोनी वाणीना सम्यक् अर्थने पण जे न समजे
तेने चारित्र केवुं? ने मुनिदशा केवी? वस्तुनुं स्वरूप, तारुं ज्ञान अने शास्त्रनुं कथन–
ए त्रणेनो मेळ मळवो जोईए; तो ज सम्यक् श्रद्धा–ज्ञान छे.
– जुओ, आवो सम्यक् श्रद्धा–ज्ञानपूर्वकनो शुद्धोपयोग होय तेने ज मुनिपणुं
होय छे. पछी भले छठ्ठा गुणस्थाने आवे ने शुभोपयोग होय, परंतु ते छठ्ठुं गुणस्थान
पण तेने ज आवे छे के जेणे पहेलां शुद्धोपयोगवडे मुनिदशा प्रगट करी होय.
– कोई एम कहे के अत्यारे आवो शुद्धोपयोग नथी;–एम शुद्धोपयोगना
अस्तित्वनी ना पाडवी ते मुनिदशानी ज ना पाडवा बराबर छे. जो शुद्धोपयोग नथी
तो मुनिदशा ज नथी.
– अत्यारे भले आवा शुद्धोपयोगी मुनि कोई देखाता नथी, –परंतु तेथी कांई
मुनिदशानुं जे स्वरूप छे ते अन्यथा थई जतुं नथी. जे कोई जीवने मुनिपणुं प्रगटे तेने
शुद्धोपयोगपूर्वक ज मुनिदशा होय छे. शुद्धोपयोगना अस्तित्वनी जे ना पाडे छे ते
मुनिदशाना अस्तित्वनी ज ना पाडे छे. अरे, सम्यग्दर्शन पण प्रथम शुद्धोपयोगसहित
ज प्रगटे छे.
– अहो, शुद्धोपयोग ते तो अतीन्द्रिय आनंदरसनुं झरणुं छे. ते अतीन्द्रियरसमां
मग्न मुनिओ मोहना विपाकथी अत्यंतपणे भेदनी भावनारूपे परिणम्या छे, एटले
उत्कृष्ट भावनावडे निर्विकार आत्मस्वरूपने प्रगट करीने ‘वीतराग’ थया छे.
– आहा, जुओ तो खरा आ धर्मीनी दशा!! आवा शुद्धोपयोगधर्मरूपे परिणमेला
मुनिवरो चैतन्यनी परम–अतीन्द्रिय कळाने अवलोके छे, एटले साता असाता जनित
बहारना सुखदुःखमां तेमने परिणामनी विषमता थती नथी, क््यांय ईष्ट–अनिष्ट वृत्ति
थती नथी, सर्वत्र ‘समसुखदुःख’ छे, –आवा श्रमणोने शुद्धोपयोग छे.
– आवा शुद्धोपयोगवडे तरत ज आत्मस्वभावनी उपलब्धि थाय छे. अहो,
आवो शुद्धोपयोग अने तेनो प्रसादथी तरत ज थती आत्मस्वरूपनी प्राप्ति–ते
प्रशंसनीय छे.