Atmadharma magazine - Ank 236
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).

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जेठ: २४८९ : ११:
पाछा फर्यां. एक क्षणमां ए धर्मात्मानुं लक्ष फर्युं, पक्ष फर्यो, परिणमननी दिशा फरी, दशा फरी; बहिर्मुख
दिशा छूटी ने अंतर्मुख दिशा थई; स्वभावनुं लक्ष थयुं ने विकारनो पक्ष छूटयो.
८. आवुं सम्यक् आत्मभान स्वर्गना देवो करी शके, नरकना नारकी पण करी शके, अरे,
तिर्यंच–ढोर पण करी शके, तो मनुष्यो करी शके एमां शुं आश्चर्य!
९. अनादिथी अज्ञानदशामां विकार साथे मेळ हतो, तेनी प्रीति हती, पण सम्यग्ज्ञान थतां विकार
साथेनो मेळ तूटी गयो ने स्वभाव साथे सगाई थई; स्वभावनी प्रीति थई ने विकारनी प्रीति तूटी.
१०. सम्यग्ज्ञानने अने विकारने मेळ नथी एटले के कर्ताकर्मरूप एकतानो संबंध तेमने नथी.
सम्यग्ज्ञानने तो चैतन्यना आनंद वगेरे अनंतगुणो साथे मळे छे.
११. अरे आत्मा! तारा चैतन्यधाममां अनंतगुण सहित तारी प्रभुता भरी छे, निर्मळज्ञानवडे
तेनो प्रेम कर... निर्मळ ज्ञानवडे तेनो स्वानुभव कर. आवो स्वानुभव थतां्र आत्मामां धर्मनो अवतार
थाय छे, अपूर्व तीर्थनी शरूआत थाय छे.
१२. पहाड जेवडी चैतन्यप्रभुता अंतरमां पडी छे पण तरणां जेवा तुच्छ विकारनी रुचि आडे
ए प्रभुतानो पहाड अज्ञानीने देखातो नथी. ज्ञानद्रष्टिथी अंतरमां नजर करे तो प्रभु पोतानाथी
वेगळा नथी, पोतामां ज पोतानी प्रभुता भरी छे.
१३. अनादिथी आत्मस्वभावने भूलीने रागथी चैतन्यनिधानने मिथ्यात्वनां ताळां मार्यां हता,
ते ताळां भेदज्ञानना उपदेशवडे श्रीगुरुए खोल्या, त्यां चिदानंदनी त्रिवेणी (–श्रद्धा–ज्ञान–आनंदनी
त्रिवेणी) हाथ आवी... हवे आत्मा मोक्षना पंथे चडयो... तेने हवे बंधन थतुं नथी... ते बंधभावथी
जुदो ने जुदो ज रहे छे.
१४. जे अनंत तीर्थंकरो थया, थाय छे ने थशे तेओ दीक्षा पहेलां ज्ञानानंदस्वरूप आत्माने
रागथी भिन्न जाणीने तेनी भावना भावता हता.
१प. सम्यग्दर्शनपूर्वक चैतन्यमां लईन थईने पूर्ण परमात्मदशानी एवी भावना भावता हता के–
अपूर्व अवसर एवो क््यारे आवशे?
क््यारे थईशुं बाह्यांतर निर्ग्रंथ जो;
सर्व संबंधनुं बंधन तीक्षण छेदीने,
विचरशुं कव महत् पुरुषने पंथ जो.
१६. अहो, महत् पुरुषो एवा सिद्ध भगवंतो अने तीर्थंकरो जे चैतन्यपंथे विचर्या ते पंथे अमे
विचरीए एवो धन्य अवसर क््यारे आवे! एवी भावना गृहस्थपणामां तीर्थंकर भावता हता.
१७. जन्म–मरणना दुःखोथी भयभीत थईने चैतन्यना अमृतनी भावना भावता भावता
तीर्थंकरो पण संसार छोडीने चैतन्यने साधवा वनमां चाली नीकळ्‌या.
१८. अमृतना अनुभवरूप दीक्षा भगवान महावीरे आजे अंगीकार करीने संसारना रागना
बंधनने तोडी नांख्या.
१९. अरे, आ रागादि भावो ते अमे नहि, अमे तो शुद्ध चैतन्यसिंधु छीए, –तेमां लीन थईने
अतीन्द्रिय आनंदनी छोळो ऊछळे. एवी धन्यदशानी भगवान भावता हता; ने आजे भगवाने एवी
दशा प्रगट करी.
२०. भगवाने मुनि थईने शुं कर्युं? भगवान कारण परमात्मानुं ध्यान करता हता. परमात्मदशारूप
जे मोक्षमाकार्य, तेना कारणरूप एवो जे चिदानंद स्वभाव तेनुं ध्यान भगवान करता हता.
२१. भगवान महावीर पहेलेथी बालब्रह्मचारी हता, स्त्रीना रागनुं बंधन तेमने हतुं ज नहि;
माता–पिताने रागने पण तोडीने भगवान आजे मुनि थया ने मुनिदशामां त्रीस वर्ष सुधी भगवाने
आत्मध्यान कर्युं. आत्म लगनीमां आहारादिनी वृत्ति छूटी थई तेनुं नाम तप.
२२. केवी हती मुनिपणामां भगवाननी परिणति? तो कहे छे के–