: ४: आत्मधर्म: २३६
आनंदनो भणकार जागे एवा भाव ते मंगळ छे, अर्थात् सम्यग्दर्शनादि भाव ते
मंगळ छे. अनंता सिद्ध भगवंतोने पोताना श्रद्धा–ज्ञानमां पधराव्या ते मंगळ
थयुं. समयसारनी शरूआतमां ज आवुं अप्रतिहत मंगळ करतां आचार्यदेव कहे
छे के अरे चैतन्य! जेवा सिद्ध भगवान छे एवो तारो आत्मा छे, सिद्धपदनी
समृद्धि तारा अंतरमां भरी छे, अनंत ज्ञान–आनंदना निधान तारामां पड्या छे;
पण परना अहंकार आडे तने तारा निधान देखाता नथी... एकवार
सिद्धभगवानने तारा आत्मामां उतारीने अंतरमां नजर कर के जेवा सिद्ध तेवो
हुं. मारा अने तारा आत्मामां हुं अनंत सिद्धोने पधरावुं छुं के प्रभो! मारा
आंगणे पधारो... विभावनो आदर छोडीने अने स्वभावनो सत्कार करीने हुं
मारा सिद्धपदने साधवा नीकळ्यो छुं; आ मारी मोक्षलक्ष्मीना स्वयंवरनो मंडप छे
तेमां हुं अनंता सिद्धोने आमंत्रु छुं. जेम लग्न वखते मोटा शेठने साथे राखे छे के
जेथी कन्या पाछी न फरे; तेम अहीं शेठ एटले जगतमां श्रेष्ठ एवा
सिद्धभगवंतोने साथे राखीने हुं मोक्षलक्ष्मीने वरवा नीकळ्यो छुं... मारा ज्ञानमां्र
अनंत सिद्धोंने पधराव्या... हवे मारी मोक्षदशा फरे नहि. –आ रीते मोक्षना
मंडपमां मंगळ कर्युं.
आत्मार्थीए तो प्रतिकळताना पहाड
ओळंगीने
पण आत्माने शोधवानो छे.
देवगुरुधर्मनी सेवाना कार्योमां