आत्मधर्म: तंत्री: जगजीवन बावचंद दोशी
इव जिणवरेहिं भणियं तं रयणतं समायरह।।
तुं आ दीर्धसंसारमां भम्यो; माटे हवे तुं ते रत्नत्रयनुं उत्तम
प्रकारे आचरण कर–एम श्री जिनेश्वरदेवे कह्युं छे.
Atmadharma magazine - Ank 239
(Year 20 - Vir Nirvana Samvat 2489, A.D. 1963)
(Devanagari transliteration).
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