आसो: २४८९ : ९ :
जगतना जीवोने ते मार्गे दोरी रह्या छे. तेमना स्वरूपना ध्यानथी सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान–
सम्यक्चारित्र वगेरेनुं स्वरूप बराबर ओळखाय छे, एटले भेदज्ञान थाय छे. जगतमां मंगलस्वरूप
तो आवा परमेष्ठीपद छे, ते ज शरण छे अने ते ज उत्तम छे. आराधनाना नायक आवा पंचपरमेष्ठी
भगवंतो वीर छे, वीरतावडे तेओ कर्मने जीतनारा छे. शुद्धस्वभाव तरफ वळीने ज शुद्धआत्मानुं ध्यान
थाय छे. जेम केवळीभगवाननी स्तुति ज्ञायकस्वभावना अनुभवथी थाय छे, तेम पंचपरमेष्ठीनुं ध्यान
पण शुद्धआत्मानी सन्मुखताथी ज थाय छे. –आवा ध्यानवडे शुद्धस्वरूपनी प्राप्ति थाय छे माटे तेनो
उपदेश छे.
ज्ञानरूपी निर्मळ–शीतळजळने सम्यक्त्वादि भाववडे पीने भव्यजीव जन्म–मरणना दाहने नष्ट
करे छे, ने परमानंद सुखरूप थाय छे. सम्यग्ज्ञानना शांत निर्विकल्प रसनुं पान करतां संसारनी
समस्त वेदनानो अने भवरोगनो नाश थई जाय छे. भगवाननी वाणी आवा शुद्धात्माना शांतरसने
दर्शावती होवाथी ते पण शीतळ अने भवतापने हरनारी छे. पूजामां आवे छे के–
तुम वच शीतल चंद्रसमान,
भवतपहरण सदा गुणखान... ध्यानिधि हो...
हे नाथ! चैतन्यना निर्विकल्प शांतरसने दर्शावती आपनी वाणी पण शीतळ छे... जाणे अमी
झरतुं होय! एम आपनी वाणी चैतन्यगुणोनी खाण बतावीने भवतापने हरनारी छे. श्रीमद् राजचंद्र
पण कहे छे के–
वचनामृत वीतरागनां, परमशांतरसमूळ;
औषध जे भवरोगनां, कायरने प्रतिकूळ.
अहा, चैतन्यघरमां अनंता निधान छे तेने जिनवाणी बतावे छे. ते वाणी चैतन्यनी सन्सुखता
करावीने शांतरसनुं वेदन करावनारी छे. अहा, आवी वाणी–चैतन्यनी सन्मुखता करावनारी–ते
भवरोगनुं औषध छे... हे जीव! अंतर्मुख थईने निर्मळभाव प्रगट करीने तुं ज्ञानमय शीतळ शांत
चैतन्यरसनुं पान कर, के जेनाथी जन्म–मरणना तीव्रदाहरूप दुःखोथी मुक्त थईने तुं पोते सुखस्वरूप
थई जशे. समयसारमां छेवटे फळ बतावतां आचार्यदेव कहे छे के आ समयप्राभृतनुं पठन करीने,
अर्थतत्त्वथी जाणीने, शुद्धात्मारूप अर्थमां जे ठरशे ते जीव स्वयमेव उत्तम सौख्यरूप परिणमी जशे.
एटले सुख क््यांय बहारथी नहि आवे पण आत्मा स्वयं निजस्वभावथी ज सुखरूप थई जशे. सुख ते
आत्माथी कोई जुदी वस्तु नथी; आत्मा ज स्वयमेव सुखस्वभाववाळो छे. अंतर्मुख थईने
निजस्वभावनी आराधना करतां पोते ज सुखरूप थई जाय छे. शांत चैतन्यरसनो गोळो आत्मा छे
तेना ध्यान वगर कदी शांतिनुं वेदन थाय नहीं ने दाह मटे नहीं. सम्यग्ज्ञानमां एवी ताकात छे के रागादिक
मळने दूर करीने निर्मळशांतभावरूप जळवडे आकुळताना तापने दूर करे छे. ए रीते सम्यग्ज्ञानवडे
आत्मा सुखरूप थाय छे. माटे ज्ञाननी भावना करीने तेमां एकाग्रता करवानो उपदेश छे.
सम्यग्दर्शनादि भावशुद्धवडे ज दुःखनो छेद ने सुखनी प्राप्ति
जगतमां जेम पृथ्वीमां पडेलुं बीज बळी गया पछी ते फरी ऊगतुं नथी, तेम संसारना बीजरूप
जे कर्म, तेने चैतन्यना ध्यानरूप अग्निवडे भस्म करतां, जीवने फरीने जन्म–मरणना अंकुरा ऊगता
नथी. सम्यग्दर्शनवडे पण संसारनुं बीज छेदाई जाय छे. सम्यग्दर्शन ते पण ध्यानवडे थाय छे. अहीं
श्रमणने संबोधीने उत्कृष्ट उपदेश छे के हे मुनि!