: १० : आत्मधर्म: २४०A
भावश्रमण थई धर्म–शुक्लध्यानवडे तुं कर्मनो सर्वथा नाश कर. अनादिकर्मनी परंपरा चैतन्यना
ध्यानवडे छेदाई जाय छे. सम्यग्दर्शनादि भावशुद्धि ते ज दुःखना छेदनो अने सुखनी प्राप्तिनो उपाय छे.
आ जगतमां जेणे सम्यग्दर्शनादि भावशुद्धि प्रगट करी छे एवा जीवो ज सुखनी परंपराने पामे
छे. अने जेओ भावशुद्धिथी रहित छे एवा द्रव्यश्रमणो तो दुःखने ज पामे छे. आ रीते भावना गुण–
दोषने जाणीने हे भव्य! तुं शुद्धभावथी संयुक्त था! सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावरूप गुण वगर संयमादि
बधुं निष्फळ छे. रागथी जेनी जात ज जुदी छे–एवा सम्यक्त्वादि भावशुद्धिथी ज सिद्धि थाय छे.
हे जीव! तुं सम्यग्दर्शनादि शुद्धभावना गुणोने जाण, अने मिथ्यात्वादि अशुद्धभावोना दोषने
जाण ए बंनेने जाणीने तारा श्रेयना कारणरूप एवा शुद्धभावनी तुं आराधना कर. सम्यग्दर्शन तो
गुणोनी खाण छे, ने मिथ्यात्व ते तो सर्वदोषनुं मूळ छे. सम्यग्दर्शन ते जिनभावना छे; संसारने
छेदवानी तेनामां ताकात छे. मिथ्यादर्शन सहित जीव गमे तेटलुं करे तोपण संसारने छेदी शकतो नथी
ने दुःख ज पामे छे. माटे हे जीव! संसारदुःखोथी छूटवा तुं मिथ्यात्वने छेदीने भावशुद्धि प्रगट कर.
भावशुद्धि ते ज सर्व उपदेशनो संक्षिप्त सार छे. भावशुद्धिनो महिमा अमे तने समजाव्यो ते समजीने तुं
सम्यग्दर्शनभाव सहित था... सम्यग्ज्ञान सहित था... सम्यक्चारित्र सहित था. आवी भावशुद्धि ते
मोक्षनो पंथ छे ने सर्व उपदेशनो सार छे.
तीर्थंकरपदगणधरपद वगेरे महान पदवी भावशुद्धिवंत समकिती ज पामे छे.
भगवान जिनवरे संक्षेपथी एम कह्युं छे के सम्यग्दर्शनादि भावशुद्धि सहित जीव महापुण्यना
अभ्युदयपूर्वक तीर्थंकर, गणधर, चक्रवर्ती, तीर्थंकरना पुत्र वगेरे थाय छे... गणधर ते सर्वज्ञपुत्र छे.
धवलामां गौतमगणधरने “सर्वज्ञपुत्र” कह्या छे. आवी महापवित्र पदवी कोण पामे? के जे जीव
सम्यग्दर्शननी आराधना सहित होय ते ज एवा. तीर्थंकरपद, गणधरपद, चक्रवर्तीपद, बळदेवपद वगेरे
अभ्युदयने पामे छे. भावशुद्धि वगर एवी पदवी होती नथी.
सम्यग्दर्शननी शुद्धि वगर कोईने किंचित् धर्म थतो नथी. ज्ञायक चिदानंदस्वभावने जेणे
निर्विकल्प प्रतीतमां लीधो छे तेने वच्चे आराधकभावसहितना पुण्यथी तीर्थंकरपदवी वगेरे मळे छे.
धर्मात्मा आराधकने अशुभआयु बंधातुं नथी, अशुभ वखते तेने नवा भवनुं आयुष्य न बंधाय.
अज्ञानीने भाव शुद्धि पण नथी अने तेने उत्तमपुण्य पण बंधाता नथी. अहो, तीर्थंकर, गणधर वगेरे
उत्तम पदवी ते भावशुद्धिनो ज प्रताप छे.
भावशुद्धिवंत संतो प्रत्ये प्रमोद अने नमस्कार
आचार्यदेव प्रमोदथी कहे छे के अहा, आवी भावशुद्धिना धारक मुनिवरो धन्य छे... तेमने
नमस्कार हो.
ते धन्यः तेभ्यः नमः दर्शनज्ञानचरण शुद्धेभ्यः।
भावसहितेभ्यः नित्यं त्रिविधेन प्रणष्टमायेभ्यः।।१२९।।
अहा, श्रेष्ठ सम्यग्दर्शनथी, विशुद्धज्ञानथी ने निर्दोष चारित्रथी जे शुद्ध छे, अने जेमने मायाचार
नष्ट थयो छे, एवा शुद्धभाव सहित श्रमणो धन्य छे, नित्य त्रिविधे तेमने नमस्कार हो. अहा, आवा
भावशुद्धिधारक संतो ते धर्मना स्तंभ छे, ते मोक्षना पंथी छे... ते प्रशंसनीय छे, ते आदरणीय छे. अहीं
कुंदकुंदाचार्य जेवा कहे छे के तेमना प्रत्ये अमारा त्रिविध नमस्कार हो.
जेम उत्कृष्ट मुनिने धन्य कह्या, तेम सम्यग्दर्शनरूप भावशुद्धिने धारण करनारा सम्यग्द्रष्टि