आसो: २४८९ : ११ :
धन्य छे, ते मोक्षना पंथे चडेला छे. धर्मात्मानी भावशुद्धि देखीने तेमना प्रत्ये धर्मीने प्रमोद आवे
छे. धर्मनी जिज्ञासावाळाने धर्मात्मा प्रत्ये प्रमोद आवे छे. भक्ति आवे छे कुंदकुंद आचार्य जेवा
पण भक्ति अने प्रमोदथी कहे छे के अहा, रत्नत्रयथी शुद्ध एवा मुनिवरोनो अवतार धन्य छे–
धन्य छे, तेमने नमस्कार हो. एम धन्यवादपूर्वक भक्तिथी नमस्कार करे छे. जेने मोक्षमार्गनो
अनुराग होय तेने मोक्षमार्गमां अधिक जीवोने देखीने तेमना प्रत्ये जरूर प्रमोद आवे अने
भक्तिथी नमस्कार जरूर करे.
धर्मीने देखीने धर्मनी जिज्ञासावाळो नमस्कार करे ज. जुओ भावशुद्धिना वर्णनमां भेगो
विनय पण बतावता जाय छे. जेने भावशुद्धिवाळा धर्मात्मा प्रत्ये आवा विनयादि न होय तेने धर्मनो
प्रेम नथी.
आराधक जीवो जगतना वैभवथी मोहित थता नथी.
अहा, जेणे जिनभावना भावी छे एवो धीर धर्मात्मा जगतनी देवादिनी ऋद्धि देखीने मोहित
थतो नथी. चैतन्यना ज्ञान–आनंदनी ऋद्धि पासे धर्मात्माने ईन्द्रपदनी ऋद्धि पण तूच्छ–तृणवत् भासे
छे; अहा, जे चैतन्यनी पवित्रतामांथी केवळज्ञानरूप ऋद्धि प्रगटे. जे चैतन्यना एक विकल्पना फळमां
ईन्द्रपद मळे, ते चैतन्य प्रत्ये जेनी बुद्धि लागेली छे एवा धीर पुरुषो कोई विद्याधरनी ऋद्धि वडे
ललचाता नथी, जगतनी क्षणिक ऋद्धिओनी भावना तेमने नथी, तेमने तो चैतन्यस्वभावनी ज
भावना छे, जेमनुं सम्यक्त्व द्रढ छे एवा धर्मात्माने आत्माने अनुभवना परमार्थसुख सिवाय बीजी
कोई भावना नथी जिनभावनामां रत एवो ते जीव सुखनिधान आत्मा पासे जगतनी बाह्यऋद्धिने
तरणां जेवी समजे छे, तेथी तेमां क््यांय ते मोहित थतो नथी.
अहा, सम्यग्यद्रष्टि पण आवी ऋद्धिमां मोहित थतो नथी तो पछी मोक्षमां ज जेमनी द्रष्टि
लागेली छे अने मोक्षने ज साधवामां जेओ तत्पर छे एवा उज्जवळ मुनिवरो जगतना अल्प तूच्छ
भोगोमां मोह केम पामे? वादळानी रचना जेवा जगतना वैभव तेमां मुनिओ मोहित थता नथी.
तेमनी परिणि९ठत तो चैतन्यना मोक्षवैभवने साधवामां ज लागेली छे. ते तो मोक्षसुखने ज जाणे छे,
तेने देखे छे ने तेने चिंतवे छे. अहा, मोक्षना रसिक सुनिवरोने संसारना वैभवनो रस ऊडी गयो छे.
जगतनी कोई ऋद्धिने तेओ चाहता नथी. समकिती पण जेने न ईच्छे, तो मुनि तो तेने केम ईच्छे?
आत्महित शीघ्न साधवानो उपदेश
हवे कहे छे के अरे जीव! जीर्ण पर्णकूटि जेवी आ देह झुंपडीने ज्यां सुधी रोगरूप अग्नि भस्म न
करी नाखे, वृद्धवस्थाथी ते घेराई न जाय अने ईन्द्रियबळ गळी न जाय त्यां सुधीमां तुं तारु आत्महित
करी ले. अरे जीव! अल्प काळनुं आयुष्य, अल्प शक्ति, तेमां शीघ्र आत्महितनो प्रयत्न कर.
आक्रमते यावन्न जरा रोगाग्निर्यावन्न दहित देहकुटीम्।
इन्द्रियबलं न विरालति तावत् त्वं कुरु आत्महितम्।।
वृद्धावस्था धर्मने रोके छे–एवो एनो नथी; पण एवो उपदेश छे के अरे जीव! तुं आत्माना
हितनो उद्यम कर. अत्यारे देहार्दिनी अनुकूळता होय तेमां मुर्छान न जा देह कांई सदाय आवोने आवो
नथी रहेवानो भुका पांदडानी झुंपडी अग्निना तणखांथी सळगी जाय तेम आ देहरूपी कुटीर पण
वृद्धावस्थारूपी अग्निवडे क्षणमां भस्म थई जशे माटे वृद्धावस्था आव्या पहेलां तुं विषय भोगोमां ने
देहमां मूर्छा छोडीने चेतन्पना हितने साधवानो आ अवसर छे पहेलेथी जेणे चैतन्यमां हितने
साधवानो शीघ्र उद्यम करजे. अहा, चैतन्यना ज्ञान–ध्यान अनुभवनो अभ्यास कर्यो