* अपूर्व पुरुषार्थथी जेणे भेदज्ञान प्रगट कर्युं छे एवा ज्ञानीनुं ज्ञान रागादिकथी जुदुं ज
परिणमे छे. तेनुं ज्ञान कदी राग साथे एकदील थतुं नथी. तेनी ज्ञानधारां अप्रतिहतभावे आगळ
वधीने केवळज्ञान साथे मळे छे.
* चिदानंद स्वभाव तरफ वळेलो ज्ञानीनो भाव ज्ञानथी ज रचायेलो छे. ते भाव राग–द्वेष
मोह वगरनो छे. ज्यां स्वभावपरिणमन थयुं तेमां विभाव केम होय?
* रागथी छूटो पडीने उपयोग ज्यां अंतरमां वळ्यो त्यां ते उपयोग पोते रागादिभावोना
अभाव स्वरूप ज छे; रागने छोडुं एवुं पण तेमां बाकी रह्युं नथी.
* भेदज्ञानरूपी वीजळी पडतां ज्ञान अने रागनी एकता तूटी, ते कदी फरीने संधावानी नथी.
‘मारी परिणति फरीने रागमां एकाकार थशे’ एम ज्ञानीने कदी शंका पडती नथी.
* अहा, अंतरमां भेदज्ञानवडे ज्यां परमात्मानो भेटो थयो त्यां हवे पामर जेवा विभावभावो
साथे संबंध कोण राखे? रागथी जुदी ज्ञानधारा उल्लसी, हवे परमात्मपदने भेटये छूटको.
* जुओ तो खरा, स्वभावनी द्रष्टिनुं जोर! पंचमकाळना मुनिराजे पण क्षायिक जेवा
अप्रतिहत धारावाही भेदज्ञाननी आराधना बतावी छे.
* ज्ञानीनी ज्ञानधारामां वच्चे आस्रव नथी. अहा, आवा ज्ञाननी अंतरमां वीरताथी
कबुलात आववी जोईए. ज्ञाननी उग्रधारा वडे जे मोहनो नाश करवा ऊभो थयो तेना पग ढीला
होय नहि तेने पुरुषार्थमां संदेह ऊठे नहि. ए वीरहाकथी मोक्षने साधवा नीकळ्यो तेनी ज्ञानधारा
वच्चे तूटे नहि.
* एकवार परिणति अंतर्मुख थईने चैतन्यमां भळी अने रागथी जुदी पडी, पछी तेमां
सदाय ज्ञानमय अबद्धस्पृष्ट परिणमन वर्त्या ज करे छे, ते परिणमनमां राग जुदो ने जुदो ज
रहे छे.
* अरे, आवी चैतन्यअनुभूतिनो केटलो महिमा छे, ने एवो अनुभव करनार
धर्मात्मानी शी स्थिति छे!! तेनी लोकोने खबर नथी. एणे मोक्षना मांडवा नाख्या छे; अने
अनुभवीने बार अंग भणवा पडे एवो कांई नियम नथी, एना अनुभवमां बारे अंगनो सार
समाई गयो छे. बार अंगना दरियामां रहेलुं चैतन्यरत्न तेणे प्राप्त करी लीधुं छे, संसारनुं मूळ
तेने छेदाई गयुं छे.
* ज्ञानीने जे ज्ञानमय भाव प्रगट्यो छे राग वगरनो छे अने ते ज्ञानमय भाव सर्व कर्मना
समूहने रोकनारो छे. आ रीते ज्ञान पोते संवररूप छे, तेमां आस्रवनो अभाव छे.