जीवो! तमे आवा परम आनंदमय आत्मतत्त्वने पामो; आ चैतन्यना
शांतरसमां मग्न थाओ. आ परमात्मानी प्रसादी छे, तेना स्वादने
अनुभवो. चैतन्यने भूलीने जगतने राजी करवामां जीव रोकायो–तेमां
कांई कल्याण नथी; माटे अरे जीव! तुं पोते अंतरमां वळीने
स्वानुभवथी राजी थाने! परमात्मानी आ प्रसादी संतो तने आपे छे–
माटे तुं राजी था–आनंदित था. तुं राजी थयो तो बधाय राजी ज छे.
बीजा राजी थाय के न थाय–ते तेनामां रह्या; तुं तारा आत्माने
सम्यक्श्रद्धा–ज्ञानथी रीझव. तारो आत्मा रीझीने राजी थयो–आनंदित
थयो त्यां जगत साथे तारे शुं संबंध छे? दरेक जीव स्वतंत्र छे... माटे
बीजाने रीझाववा करतां तुं तारा आत्माने रीझव. त्रण लोकनो नाथ
ज्यां रीझयो त्यां ते सम्यग्दर्शन–ज्ञान–चारित्र ने परम आनंदनो दातार
छे. अरे जीवो! एकवार तो आवो अनुभव करीने आत्माने रीझवो.
आत्मज्ञ संतोनी उपासना वडे आत्माने रीझवतां अतीन्द्रियआनंदरूप
परमात्मानी प्रसादी प्राप्त थाय छे.